यह जगत जिसको हम सत्य मान बैठे हैं, क्या वह वाकई सत्य है? क्या यह नित्य है?
कहीं यह हमारी मान्यता तो नहीं हैं कि, जागृत अवस्था सत्य है, जगत सत्य है, मैं तो आता जाता रहता हूँ, जगत तो तब भी था जब मैं नहीं था या जब मैं नहीं रहूँगा आदि आदि।
क्या यह मान्यतायें सही हैं, क्या इन धारणाओं में कुछ भूल तो नहीं है?
थोड़ा सा मनन करने पर एक बिल्कुल भिन्न तथ्य उभरता है। यह सभी दृष्टिकोण तभी तक सही हैं जब तक हमने अपने आप को यह शरीर या मन मान लिया है। पर क्या मैं वाकई शरीर या मन हूँ?
यदि मैं शरीर हूँ तो शरीर का कौनसा भाग मैं हूँ? शरीर तो बदलता रहा है, तो कौनसा शरीर मैं हूँ, वह जो पैदा हुआ था या जो अभी है? जब स्वप्न और सुषुप्ति में मेरा तदात्म्य भौतिक शरीर से नहीं रहता तो मैं जो इस शरीर को मैं मानता था वो मैं कहां गया? यदि मैं शरीर हूँ, तो मन कौन है और यदि मैं मन हूँ तो मैं शरीर कैसे हुआ? यदि मैं शरीर या मन हूँ तो उसको बदलता हुआ कैसे जान पा रहा हूँ? मैं शरीर या मन में कहां स्थित हूँ?
यह प्रश्न हमें सोचने पर विवश करते हैं कि यदि मैं शरीर या मन नहीं हूँ तो 'मैं कौन हूँ' या 'मैं क्या हूँ' ? और तब अध्यात्म की शुरुआत होती है।
कल्पना करें कि आप लहरों को देख रहे हैं। तो लहर के उठने के पहले, जब लहर थी और जब लहर विलीन हो गई, तीनों स्थितियों में, मैं लहरों को बदलते हुऐ देख सकता था, यानि मैं लहर नहीं हूँ।
जो बदलाव के साथ बदल रहा है, वो बदलाव को जान ही नहीं सकता है। यानि जो बदल रहा है और उसको मैं बदलता हुआ जान रहा हूँ, तो मैं वो नहीं सकता हूँ। दूसरे शब्दों में जो भी अनित्य है, वो मैं नहीं हूँ।
मुझे अपने अनुभव में ऐसा कुछ भी नहीं मिला है जो अनित्य ना हो। जब जो भी अनित्य है वो मैं नहीं हूँ, तो जो भी नित्य है, मैं वही हूँ।
लेकिन जगत, शरीर, या मन में ऐसा कुछ भी नहीं मिलता है, जो नित्य है।
अनित्य मैं हूँ नहीं और नित्य कुछ है नहीं, तो मैं क्या हूँ?
इसपर मनन करें, उत्तर स्वयं ही मिलेगा, तभी वह विश्वसनीय होगा। किसी के द्वारा दिया हुआ उत्तर ना ग्रहण करें। इस प्रश्न के साथ रहें। जब उत्तर मिलेगा तो अपनी मूर्खता पर हंसी जरूर आयेगी, कि यह इतना सरल कैसे हो सकता है।
मेरे विचार में, यही नित्य अनित्य विवेक है। जिसका फल आत्मबोध है।
प्रणाम।
चिंगारी सीधे बारूद के ढेर में लग जाती है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! आशु जी 🙏💐
जी हाँ!
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