अहम वृत्ति यानि जिसको भी 'मैं' समझा है, और मैं समझकर उससे तदात्म्य बना लिया है। तदात्म्य का अर्थ है, कुछ भी 'यह' है उसको 'मैं हूँ' या 'यह मैं हूँ' ऐसा मान लेना। अहम वृत्ति उत्पन्न होने के साथ ही बाकी सब 'अन्य' हो जाते हैं। फिर वो चाहे अन्य वस्तु हो या अन्य व्यक्ति। अहम भाव उत्पन्न होते ही अंदर - बाहर की कल्पना का भी जन्म हो जाता है।
बस यही 'द्वैत' का उद्गम है, यही भ्रम है जिसमें व्यक्ति जीवन गुजार देता है। जबकि वास्तव में व्यक्ति तो कहीं है ही नहीं, व्यक्ति केवल माया है, एक मिथ्या है, एक मनगढ़ंत कल्पना मात्र है।
कुछ अनुभवों या घटनाओं का संग्रह है स्मृति में, जिसको हम अपना जीवन समझ लेते हैं, या व्यक्तित्व मान लेते हैं। व्यक्ति या व्यक्तित्व एक मनगढ़ंत कल्पना है, कुछ स्मृति है, विचारों की शृंखला है, जो की खुद एक अनुभव है। व्यक्ति का अनुभव होता है, इसलिये व्यक्ति को कुछ अनुभव नहीं हो सकता है।
अद्वैत में श्रवण करने के बाद भी, अधिकतर हम इसको एक प्रशंसनीय सिद्दांत के रुप में स्वीकार कर लेते हैं और फिर उसका सामान्यकरण हो जाता है। केवल मान लेते हैं की, हाँ अद्वैत सत्य है, क्योंकि गुरुजन कहते हैं, क्योंकि शास्त्र यही घोषणा करते हैं। मानना काफी नहीं है, जानना महत्वपूर्ण है।
हम गुरु वाणी पर मनन नहीं करते, उसपर प्रश्न भी नहीं करते हैं और प्रयोग करके अपने अपरोक्ष अनुभव में नहीं उतारते हैं। इस तरह शाब्दिक ज्ञान होने के बाद, या कभी कभी शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने पर भी हम कोरे के कोरे रह जाते हैं। श्रवण करने के बाद उसे सत्य ना मान लें, उसे अपने अपरोक्ष अनुभव और तर्क की कसौटी पर अच्छी तरह जांचे, तो यह ज्ञान सिद्ध होता है। उसमें एक दृढ़ता आ जाती है, और वह जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है।
यह ज्ञान मार्ग का आरम्भ है, यही ज्ञान दीक्षा है और सही मायने में यही गुरु दक्षिणा है। ज्ञान मार्ग पर गुरु कुछ और नहीं मांगता शिष्य से, बस यही की उनके द्वारा दिखाये गये दर्शन का दर्शन शिष्य स्वयं कर ले।
आत्मज्ञान नकारात्मक ज्ञान है। आत्मन निर्गुण है इसलिये उसकी कोई स्मृति नहीं बनती है। पर आत्मन हुआ जा सकता है, जो की हम सब पहले से ही हैं। कहीं कोई सीमा नहीं है, एक भ्रम मात्र है कि 'मैं' कुछ भिन्न हूँ।
यहां तक की मृत्यु होने पर व्यक्ति नहीं रहेगा और ना ही व्यक्ति की स्मृति, लेकिन उससे भी आत्मबोध (या आत्मज्ञान) नहीं मिटता है। क्योंकि स्मृति नहीं मिट सकती है, वह बीज (या संस्कार) रुप में कारण शरीर में स्थित है। उपयुक्त समय आने पर फिर प्रकट हो जायेगी। स्मृति मिटती नहीं है और ना ही विलीन होती है, क्योंकि उसमें सारी सीमायें काल्पनिक हैं। केवल अवस्थाओं के बदलने का भ्रम मात्र होता है।
आत्मबोध होने पर चेतना जागृत हो जाती है, तो यदि रुचि है और प्रयोगों द्वारा यह भी सम्भव है की मृत्यु अवस्था में भी चेतना जागृत रहे। मृत्यु असत्य है, जो अस्थाई नाम रुप है वह फिर पंचतत्वों में समा गया है, स्मृति को कुछ नहीं हुआ।
आत्मबोध 'मैं' के नहीं होने का ज्ञान है। यह एक बार हो गया तो यह कहीं नहीं जायेगा। आत्मन सत्य है, ज्ञान भी मिथ्या का ही होता है, इसलिये जो भी बुद्धि ने माना है कि 'मैं कुछ हूँ', वह सब असत्य है।
आत्मन निर्गुण है इसलिये अज्ञेय है, तो उसका ज्ञान कैसे हो सकता है। यदि उसका अर्थ नहीं समझा तो आत्मज्ञान विरोधात्मक शब्द है। पर जिसको आत्मबोध हो गया है, वह साधक को उनके स्तर पर जाकर समझाता है कि मुझे यह बोध हुआ है और यह तुम्हारे लिये भी सम्भव है, तो यह वाक्य असत्य होते हुए भी सत्य है।
आत्मन मैं पहले से ही हूँ, केवल इसका बोध नहीं हुआ है। कृपा से आत्मबोध किसी के लिए भी मौन में सिद्ध होना सम्भव है, क्योंकि यही सत्य है, जो अभी इसी क्षण प्रत्यक्ष अनुभव किया जा रहा है। आत्मबोध कोई प्राप्ति नहीं है, वह मेरा स्वभाव है।
बहुत अच्छा लेख है अश्विन जी । लेकिन मेरा एक प्रश्न है आपसे वो यह कि
जवाब देंहटाएंक्या यह आत्म बोध है या चेतना का विस्तार ।
एक जगह आपने लिखा है
" आत्म बोध होने पर चेतना जागृत हो जाती है "
क्या ये विरोधाभास पूर्ण बात नहीं लग रही है ! आत्म बोध को चेतना जागृति का हेतु आपने किस आधार पर कहा ? क्षमा चाहूंगा लेकिन आपको सुझाव रहेगा कि कृपया अपने लेख की समीक्षा करें ।
पवन जी नमस्ते,
हटाएंआपने बिलकुल सही कहा है कि आत्मबोध, यानि 'आत्मन क्या है' यह समझ आ जाने पर, चेतना का विस्तार होने लगता है, सारी सीमायें टूटने लगती हैं और सभी कुछ मैं ही हूँ यह आभास होने लगता है।
चेतना चित्त की सबसे सूक्ष्म अवस्था है। इस लेख में 'आत्मन, साक्षी या जो सब अनुभवों को देख रहा है' वो क्या है इस ज्ञान को ही चेतना कहा गया है। इस संदर्भ में आत्मबोध होने पर चेतना जागृत हो जाती है ऐसा कहा गया है।
अंततः तो केवल अद्वैत ही है, शून्यता ही है, तो चेतना भी एक चित्त वृत्ति ही है, एक तरह का सूक्ष्म अज्ञान है कि 'आत्मन' है।
प्रणाम!
चेतना का विस्तार यह शब्द भ्रमित कर सकता है । चेतना घटेगी बढ़ेगी नहीं बल्कि आती जाती रहेगी । बढ़ाने या फैलने से अभिप्राय चेतना के टिके रहने से होना चाहिए अन्यथा मुसीबतें बढ़ जाएंगी ☺️ । हो सकता है मै कहीं गलत होऊं कृपया मुझे जरूर सूचित करके संवाद का अवसर दें ।
जवाब देंहटाएंजी हाँ, ज्ञान मार्ग पर हर महत्वपूर्ण शब्द का अर्थ बिलकुल साफ होना चाहिए। जी संवाद करके और स्पष्ट होगा।
हटाएं🙏🙏🙏
व्यक्ति केवल माया है, एक मिथ्या है,कल्पना है। इसे केवल मान लेनानहीं बल्कि अपने अपरोक्ष अनुभव द्वारा जानना है, जो की केवल ज्ञान मार्ग मे, अपने अज्ञान को नाश करके ही संभव है। आशु सर आपके द्वारा लिखें गए हर लेख बहोत स्पष्ट और सुन्दर होते है। 🙏🙏🌺🌺
जवाब देंहटाएंआपने सही समझा है।
हटाएंबहुत धन्यवाद आपका।
🙏🙏