समर्पण क्या है?
समर्पण का अर्थ है सम + अर्पण। जो कुछ भी मैंनें अपने आप को मान लिया है, वो सब कुछ अर्पण कर देना, समर्पण है। अपना अज्ञान, मान्यताओं, पूर्वाग्रह, मतारोपण आदि का त्याग समर्पण है। अपने स्वरूप में समता पूर्वक स्थिति समर्पण है।
अर्पण तो तब करूं जब दो हों, जब दो ही नहीं हैं तो समर्पण भी किसे करूं। जब करने वाला कोई नहीं है, तो जो बच गया वो समर्पण है।
समर्पण किसे करना है वो महत्वपूर्ण नहीं है, समर्पित होना महत्वपूर्ण है। ज्ञान का अन्त समर्पण है, प्रेम की अभिव्यक्ति समर्पण है। हर क्षण स्वीकार भाव समर्पण है।
समर्पण कैसे करें?
समर्पण किया नहीं जाता है, समर्पण स्वतः होता है। जब तक अज्ञान है कि मैं अस्तित्व से भिन्न कुछ हूँ, चाहे वो शरीर, मन आदि, कुछ भी मान बैठे हैं, तब तक समर्पण नहीं होता है।
जब बुद्धि की सीमा प्रकट हो जाती है, जब सद्गुरु मिल जाते हैं, जब सभी प्रश्न समाप्त हो जाते हैं, जब यह दिख जाता है कि कोई समर्पण करने वाला नहीं है, तब समर्पण हो ही जाता है। तब और कोई विकल्प नहीं बचता है।
जिस समय प्रेम है, उस समय समर्पण है। जब अज्ञेयता है तब समर्पण है। जब सब कुछ पूर्वनिर्धारित है, जब समयहीनता है, जब स्थानहीनता है, जब कर्महीनता है, जब कारणहीनता है, जब ज्ञानहीनता है, जब साक्षी भाव है, तब समर्पण है।
समर्पण कोई भाव नहीं है, समर्पण अस्तित्व है, समर्पण पूर्णता है। समर्पण इच्छा पूर्ती में नहीं है, समर्पण इच्छा मुक्ति में है की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अब कुछ भी हो वो स्वीकार है, वो प्रसाद है। जब स्वीकार करने वाला भी मिथ्या है यह पूर्ण निष्ठा है, तब समर्पण है।
जब प्रतीक्षा है, जब श्रद्धा है, जब मुझमें सब है, और सबमें मैं ही हूँ, तब समर्पण है।
समर्पण का अर्थ हार मान लेना नहीं है, समर्पण का अर्थ हथियार डाल देना नहीं है, या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी समर्पण नहीं है।
समर्पण कोई कृत्य नहीं है, समर्पण होना मात्र है। वो होना जो मुझसे कोई छीन नहीं सकता है, वो जो निर्मल है, जो निरंजन है, जो अलख है, जो शिव है, और वही देवी है, वही मैं हूँ। शिव और देवी एक ही हैं, यही अद्वैत है, यही ब्रह्मज्ञान है, यही समाधि है, और इसका रस पान करना ही समर्पण है।
समर्पण तभी संभव है, जब सद्गुरु मिलते हैं। सद्गुरु तभी मिलते हैं, जब समर्पण होता है। यह कृपा से ही होता है, यहां बुद्धि का कोई काम नहीं है। जब मूल ज्ञान हो गया, आत्मज्ञान हो गया, तो बुद्धि समर्पित हो जाती है अज्ञेयता में, और तब समर्पण उत्पन्न होता है।
समर्पण के बारे में कुछ कहना मूर्खता ही है, इसलिये अब मौन होने में ही समझदारी है।
🙏🙏🙏
बहुत सुन्दर और सरल
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
धन्यवाद 🙏🙏
हटाएंसभी मार्गों का अंत= समर्पण 🌼
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लेख है - धन्यवाद🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएं🙏🙏
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जवाब देंहटाएंसमर्पण की बहुत सुन्दर व्याख्या की है, अश्विन जी आपने। 🙏🙏🌺
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏🙏
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