मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

पूर्णता से पूर्णता।



जीवन के लिए जो भी आवश्यक है वो प्रकृति में पहले से ही भरपूर मात्रा में प्राकृतिक रुप से उपलब्ध है और वह पूर्ण है, उसको और अधिक पूर्ण नहीं किया जा सकता है। 

पूर्णता पूरी तरह से जीव के विकासक्रम पर निर्भर होती है। जैसे पेड़ के लिए धूप, हवा और मिट्टी ही पूर्णता है, पशु के लिए अपनी बुनियादी प्रकृति या इन्द्रियों के अनुसार चलना ही पूर्णता है आदि। 

मनुष्य विकासक्रम में आगे बढ़ गया है, तो बुद्धि का उपयोग अपने स्वरूप को जानने के लिए करना ही उसे पूर्णता देता है, नहीं तो वह जीवन भर अपने आप को और पूर्ण करने का प्रयत्न करता रहेगा। यह असम्भव है, क्योंकि हर रचना अपने आप में पहले से ही पूर्ण है। अपूर्णता एक भ्रम है।

परेशानी तब होती है जब हम जागृत अवस्था में अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूल जाते हैं और अहम भाव में रहते हुऐ इच्छाओं का बोझा अपने कंधे पर उठा लेते हैं। हमारा सारा ध्यान वासनापूर्ति में ही लगा रहता है।

जब कुछ अपूर्ण दिखता है तो मैं उसको सुधारना चाहता हूँ, उसको नियंत्रित करना चाहता हूँ या यदि उसका कुछ नहीं कर पाता हूँ तो उसको देखकर परेशान या दुखी होता हूँ। 

अपूर्णता दो तरह की हो सकती है, जगत, अन्य व्यक्तियों, परिस्थितियों में कुछ अपूर्ण दिखता है या मुझे अपने आप में कुछ अपूर्ण प्रतीत होता है। 

जब कुछ कारण नहीं समझ आता है, और कुछ कर नहीं पाता हूँ तो किसी अन्य को, कर्म को या ईश्वर को दोषी ठहरा देता हूँ। यह पलायन है, क्योंकि ईश्वर अपना बचाव करने आयेंगे नहीं और कर्म की गति कोई नहीं जान सकता है।

यह है एक आम सोच, एक व्यवहारिक जीवन जीने का तरीका, जो की समाज को स्वीकृत है। जब इसको एक अध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो कुछ और ही सामने आता है।

अस्तित्व में क्या घट रहा है? बहुत सरल उत्तर है, एक दृष्टा है, जो साक्षी मात्र है और उसको कुछ अनुभव हो रहा है; इसके सिवा अस्तित्व और कुछ नहीं है। 

यह जानना बहुत आसान है कि जो अनुभव का साक्षी है वह तो पूर्ण है, उसमें कुछ परिवर्तन नहीं है, कोई विकार नहीं है।

अब बचा वो, जो अनुभव में आ रहा है। अनुभव में कभी कभी अपूर्णता प्रतीत होती है, और कई बार हम जीवन को एक संघर्ष बना लेते हैं, उससे झूझते रहते हैं। 

किसी को भी अपूर्ण मानने के लिए बहुत प्रक्रियायें आवश्यक हैं - वर्तमान में जो भी है उसकी स्मृति से तुलना, अपनी वासनाओं या इच्छाओं के अनुरूप कुछ होने की कामना, अहम भाव का शक्तीशाली होना, मिथ्या या मान्यताओं को सत्य मान लेना, कर्ता भाव या संकीर्ण मानसिकता का होना आदि। क्या इनके अभाव में कुछ भी अपूर्ण है?

क्या चींटी अपूर्ण है, क्या कोई कोषिका अपूर्ण है? क्या कोई वस्तु या घटना अपूर्ण है? क्या कोई अवस्था या स्थिति अपूर्ण है? क्या माया या कोई भी अनुभव अपूर्ण है? क्या स्वप्न चरित्र के लिए स्वप्न की कोई भी घटना अपूर्ण है? क्या झरने की कोई बूंद या धूप की कोई किरण अपूर्ण है? चन्द्रमा की कौनसी कला अपूर्ण है? क्या कोई भी एक विचार या भाव अपूर्ण है?

इससे यह भी दिखता है कि, अपूर्णता पूरी तरह से व्यक्तिनिष्ठ है। एक ही घटना किसी को पूर्ण प्रतीत हो सकती है तो किसी को अपूर्ण।

अधिकतर हम उसको अपूर्ण समझ लेते हैं जो मेरी इच्छा के अनुरूप नहीं है। अहम भाव (मैं और मेरा), धारणाओं, मान्यताओं, कल्पनाओं, और अज्ञान के अभाव में, सब कुछ अभी इसी क्षण पूर्ण है।

क्या कभी प्रयत्न से अपूर्ण को पूर्ण किया जा सकता है? क्या जो पूर्ण है वह किसी भी तरह से अपूर्ण हो सकता है? क्या जैसा है वैसा ही सब पूर्ण नहीं है? 

अंततः, बाहर कुछ हो तो सही जिसको मैं अपूर्ण या पूर्ण समझूँ। मैं स्वयं ही स्वयं का अनुभव अनंत अनुभवों के रुप में कर रहा हूँ, इसमें अपूर्णता कहां है, या कैसे हो सकती है? 

परिच्छिन्न बुद्धि सत्य को कभी जान नहीं सकती है, वह इस भ्रम में है कि मैं कुछ भिन्न हूँ सृष्टि से, वह पूर्णता नहीं देख सकती है। और जिस एकत्व बुद्धि ने खुद की असमर्थता को जान लिया है कि पूर्णता को बुद्धि से जानना असम्भव है, वह पूर्णता को समर्पित है। ऐसी बुद्धि सब परिस्थितियों में केवल पूर्णता का ही दर्शन करती है, क्योंकि वह स्वयं सर्वदा पूर्णता से उभरकर पूर्णता में ही विलीन है।

पूर्णता ही सुन्दर है, शिव है, सत्य है, शून्य या चैतन्य है। कोई भी प्रयत्न किसी को अपूर्णता से पूर्णता की तरफ नहीं ले जा सकता है, अपितु हर अनुभव पूर्णता का स्मरण है। जिस क्षण 'अहम, मैं, मेरा' की मिथ्या समझ में आ गई, उसी क्षण अपूर्णता का भ्रम पैदा नहीं होगा।

दृष्टि दृष्टि में भेद है, एक दृष्टि में कुछ भी पूर्ण नहीं है और एक दृष्टि में कुछ भी अपूर्ण नहीं है। चुनाव आपका है कि जो सत्य है, जो पूर्ण ही है उसे देखें और अपने आनंद स्वरूप में स्थित रहें।

ॐ पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम्, पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णम् आदाय, पूर्णम् एव अवशिष्यते।।

वह पूर्ण है, यह भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न हुआ है। पूर्णता से पूर्णता निकाल भी लें, तो जो बचा वह भी पूर्ण ही है।

प्रणाम।

12 टिप्‍पणियां:

  1. आशुजी बहोत बहोत ध्यनवाद गहेरा लेख लिखा है
    नमन

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  2. Ashwin ji parnam guruji khte h ki joh bhi ghtna horahi h,vah purav nirdharit h.vishavchit ki samirti me sab kuchh phle se hi bij roop me mojud h.iska matlab mene joh kuchh bhi likha h,kya ye ek ek sabd pehle se nirdharit h ? Kripa samadhan kre

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  3. प्रणाम,

    चित्त के स्तर पर बड़े पक्के नियम हैं जिनको तोड़ा नहीं जा सकता है। इस तरह जैसी स्मृति में है वैसा ही प्रकट होता है, यानी इस स्तर पर सभी कुछ पूर्व निर्धारित है। जो आपने लिखा है उसके सिवा कुछ और लिखना सम्भव नहीं था। जैसे कम्प्यूटर में जिस तरह का इनपुट दिया गया है, जैसा प्रोग्राम सेट है वैसा ही उसका आउटपुट आता है। मनोशरीर यंत्र भी इसी तरह नियमबद्ध है।

    पर सब कुछ इतना ठोस भी नहीं है। नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता है, पर उनसे उपर उठा जा सकता है। जो ज्ञानी हैं, जो साधक हैं, जिनका कर्मों की कतार क्षीण हो गई है, जिसने अपने स्वरूप को पहचान लिया है, उसके जीवन में सम्भावनायें बढ़ती जाती हैं और पूर्वनिर्धारित कम होने लगता है।

    मनोशरीर यंत्र जड़ है इसलिये नियम बद्ध है, लेकिन आप यह यंत्र नहीं हैं, इसलिये आपके लिए कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं है, आप अभी भी पूर्णयता मुक्त हैं। उस चैतन्य स्वरूप में स्थित होने पर कोई बंधन नहीं है, कोई नियम नहीं है।

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  4. आपने बहुत अच्छे प्रश्न पूछे हैं, इनकी हम आत्मबोध सत्संग में भी चर्चा करेंगे। यह सत्संग हर शुक्रवार को सुबह ७ बजे टेलिग्राम पर होता है।

    ग्रुप का लिंक है


    https://t.me/aatmbodh

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  5. Ashwin ji aap ka hardik dhanyavad.aap ne bilkul sahi kha ki sab kuchh purav nirdharit h.Aap se jawab dene me ek chhoti si galti hogi h.voh ye ki aap ne kha ki jab karam samapt hone lagte h or gyan hojata h,toh gyani pr puravniyojan ka niyam km hojata h.Lakin esa nahi h.Kyonki atmn phle hi har parkar ke niyam se pre h or atmgyan or agyan dono maya ke khel h,isliye agyani ke liye purav nirdharit niyam alag honge or gyani ke liye alag honge,lakin puravniyojan ke niyam se barahm ko chhod kr sab puri tarah bandhe h.yanha tak bandhe h ki,kab chetna ayegi or kab jayegi,sab nirdharit h.kripa jawab jrur de

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  6. देखिये यहां थोड़ा समझ में भेद हो सकता है, यह उसपर निर्भर करता है कि आप किस स्तर पर बात कर रहे हैं।

    ब्रह्मं का अर्थ है अस्तित्व, जो भी है वो अस्तित्व ही है। अस्तित्व में समयहीनता है, यानी सब पहले ही हो चुका है, या फिर कुछ हुआ ही नहीं है। अस्तित्व में सब कुछ है, वो भी है जो पूर्व निर्धारित है, और वो भी है जो अनियमित है, या जो इच्छा शक्ति से होता है, सारी सम्भावनायें हैं यहां पर। पर अन्त में यहां सभी मिथ्या है।

    जो जितना विकसित होगा आध्यात्मिक रुप से, उसका जीवन उतना कम पूर्वनिर्धारित होगा। साधक या ज्ञानी का कोई भविष्य नहीं होता है, क्योंकि साधक या ज्ञानी कर्म त्याग देता है, तो उसके जीवन में कुछ नया होने की सम्भावना बढ़ जाती है। साधक के कर्म विश्वस्मृति या गुरुक्षेत्र से आने लगते हैं, क्योंकि गुरु कृपा, साधना, चेतना आदि के कारण उसका प्रारब्ध समाप्त हो जाता है।

    🙏🙏🙏

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