शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

ज्ञान मार्ग पर दो कदम।


पहला है 'नेती नेती'।


अद्वैत में बहुत प्रचलित, इन आसान पर अध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण शब्दों का अर्थ है, 'यह नहीं' 'यह नहीं' (न + इति)। 


जब कोई जिज्ञासु यह ढूंढता है कि मैं कौन हूँ या मैं क्या हूँ, तो उसको कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है। फिर गुरूजन कहते हैं, 'तत् त्वम् असि', यानि तुम ही ब्रह्मं हो। तो साधक पूछता है यह ब्रह्मं क्या है?


ब्रह्मं क्या है, इसका भी सीधा उत्तर नहीं मिल सकता है, क्योंकि जो निर्गुण निराकार है वह किस अनुभव में मिलेगा? अंततः यह सवाल भी अवश्य उठता है कि ऐसा कौनसा अनुभव है जिसमें वो नहीं है? 


यहां नेती नेती काम आता है। जो भी 'यह' है वो साक्षी नहीं है। 'यह' का अर्थ है कि जो भी प्रकट है, जो भी प्रकट होने की सम्भावना है, या जो भी अनुभव में है या अनुभव में आ सकता है, यानि सब कुछ 'यह' है। 


जगत, ब्रह्माण्ड, शरीर, मानसिक अनुभूतियां, इन्द्रियां, मन, भावनायें, अहंकार, विचार, बुद्धि, स्मृति, चित्त वृत्ति आदि सभी कुछ अनुभव में आता है। जो भी अनुभव में आ रहा है, जब वह अनुभव नहीं होता तब भी दृष्टा रह जाता है, कुछ और अनुभव करते हुए। 


जैसे कभी भावनायें होती हैं, और जब भावनायें बह गई तब भी मैं रहा, भावनाओं के आने से पहले भी मैं वैसा ही था। इसी तरह सब कुछ परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है, और इसलिये मैं जो इन सबका दृष्टा हूँ, 'यह' कुछ भी नहीं हो सकता हूँ।


नेती नेती का अर्थ है कि, अपने आप को गलती से 'यह' नहीं मान लेना चाहिए। उसके बाद जो बचता है, जो इनको नकार रहा है, पर जिसको खुद कभी नहीं नकारा जा सकता है, वो ही दृष्टा है, और वही मैं हूँ। 


कोई पूछता है कि यह दो बार क्यों कहा गया है, 'नेती नेती'? शायद इसलिये कि जो अज्ञेय है उसको कैसे बयान करें, तो पहले कदम पर कहीं ना फंसे, इसलिये समझने के लिए कह दिया -


न यह, न वह।

न यहां, न वहां।

न प्रकट, न अप्रकट।

न जगत, न जगदीश।

न चर, न अचर।

न गतिमान, न स्थिर।

न जीवित, न मृत्य। 

न कर्ता, न भोक्ता।

न शरीर, न मन।

आदि आदि।


यहां पर दूसरा कदम आता है, जो गुरु कृपा से ही सम्भव है, और वो है 'सर्वम् खल्विदम ब्रह्मं' या 'अद्वैत दृष्टि'। जो भी है वह दो नहीं है, और यह अद्वैत सत्ता ही ब्रह्मं है। यानि मैं केवल दृष्टा ही नहीं हूँ, दृश्य भी मैं ही हूँ, मुझसे अन्य कुछ है ही नहीं। 


न दृश्य सत्य है, न दृष्टा सत्य है, केवल दृष्टि मात्र है, केवल ब्रह्मं मात्र है, केवल अस्तित्व है, केवल सत्ता है, केवल चैतन्य है, केवल शून्यता है। ब्रह्मं को कहीं दूर न समझें, कुछ प्रयत्न करके प्राप्त करने का प्रयास ना करें, क्योंकि मैं पहले से ही ब्रह्मं हूँ। इससे अधिक उचित यह कहना है कि केवल 'ब्रह्मं है'।


जितना मैं यह जानता हूँ की मैं यह मनोशरीर (जिसको मैं 'मैं' या 'मेरा' मानता हूँ) नहीं हूँ, उतना सभी अन्य मनोशरीर मैं ही हूँ यह दृढ निश्चय होने लगता है। इस तरह सारी सीमायें काल्पनिक दिखाई देते हुऐ मिट जाती हैं। क्योंकि सारा विभाजन चित्त निर्मित है, अंततः केवल अद्वैत ही है।


इसके बाद जानने के लिए कुछ नहीं बचा, कहने के लिए कुछ नहीं रहा, जब 'मैं' ही नहीं रहा। वो नमक की गुड़िया जो अपने आप को ढूंढने समुंद्र में कूदी कभी बाहर नहीं आयी। एक बूंद फिर से सागर में समा गई।


प्रणाम।

4 टिप्‍पणियां:

  1. i have no words to thank u for your new description,,,which is so old and PRESENTED IN GOOD FASHION

    जवाब देंहटाएं
  2. Yes, fundamental knowledge is same... It is old wine in new bottle...

    The truth is ever present, it does not changes. If it is changed, it was never true... And best part is that it is available right now right here in its full glory, totally untainted...

    And that is nothing but ME, it is nothing but you, and it only ONE, non dual...

    🙏🙏🙏

    जवाब देंहटाएं