जगत सत्य ही तो है, उसीमें तो यह शरीर है, यदि शरीर ही नहीं रहेगा तो मैं भी नहीं रहूँगा। इस तरह की कई मान्यतायें हो सकती हैं, पर जैसा हमने पहले लेखों में देखा की इनको इतनी आसानी से स्थापित नहीं किया जा सकता है। बल्कि मनन करने पर तो कुछ और ही तथ्य उभरते हैं।
यदि कोई कहता है कि जगत मिथ्या है, तो उससे भी पूछना चाहिये कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? केवल किसी के कहने पर उसे स्वीकार ना करें। यदि उत्तर मिलता है कि यह सत्य है क्योंकि यह किसी शास्त्र में लिखा है, तो थोड़ा सावधान हो जायें। पूछें, पर आपका क्या अनुभव है और यह कैसे तार्किक है? यदि फिर भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिले तो कहीं और उत्तर ढूंढना जरूरी है।
शंकराचार्य ने भी तो कहा है, ब्रह्मं सत्यम जगत मिथ्या। इसपर भी आंख बंद कर विश्वास ना करें, इसको भी तर्क और अनुभव पर उतारें, विचार करें ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं तो यह भी अन्धश्रद्धा है।
दूसरी तरफ उपनिषद में यह भी तो लिखा है, सर्वम् खल्विदम ब्रह्मं। यानि जो भी है वह सभी कुछ ब्रह्मं है। यदि सभी कुछ ब्रह्मं है तो उसमें तो जगत भी आ गया और क्योंकि ब्रह्मं सत्य है तो जगत भी सत्य हो गया।
अब तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सही क्या है, जगत सत्य है या मिथ्या है?
इसपर आगे चर्चा करने से पहले, सबसे पहले यह जान लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सत्य और असत्य दोनों व्यक्तिनिष्ठ और मनगढ़ंत हैं। जो मेरा सत्य का मानदंड है वही मेरे लिये सत्य है बाकी असत्य है। और अद्वैत में सत्य का एक ही मानदंड है, जो अपरिवर्तनीय है वही सत्य है।
ज्ञान मार्ग पर दो ही साधन काम आते हैं - आपका अपना अनुभव क्या कहता है और दूसरा क्या यह विचार तर्क पर आधारित है या कोई मान्यता है। इन दो साधनों का भरपूर उपयोग करें, तो धीरे धीरे सारी उलझनें दूर होने लगेंगी।
क्या सही है, जगत सत्य है या मिथ्या? इसको समझने से पहले इन तीन शब्दों को थोड़ा समझ लें - 'जगत' यानि जो इन्द्रियों के द्वारा अनुभव में आता है, 'सत्य' वो है जो देश और काल में बदलता नहीं है और 'मिथ्या' जो है नहीं पर ऐसा प्रतीत होता है कि वो है।
जगत पल पल परिवर्तित हो रहा है, जब तक जगत का कुछ अनुभव में आता है, और स्मृति उसकी तुलना पुराने अनुभव से करते हुऐ कुछ निष्कर्ष पर आती है, तब तक उसमें कुछ बदल चुका होता है। भेद केवल गति में है, कुछ परिवर्तन बहुत तेज हो रहे हैं और कुछ बहुत धीरे। पर यह निश्चित है कि कोई भी अनुभव (या जगत) अपरिवर्तनीय नहीं है, यानि सभी कुछ मिथ्या है, असत्य है, गतिमान है, नाद है। यानि जगत सत्य नहीं है, मिथ्या है।
दूसरी दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि अनुभव किसका हो रहा है, यह कभी नहीं जाना जा सकता है। जिसका अनुभव हो रहा है और जो अनुभव कर रहा है दोनों एक ही हैं, यदि इसमें कुछ भिन्नता है तो कोई भी अनुभव होना असम्भव है।
दूसरे शब्दों में दृष्टा ही दृश्य है। या फिर ना दृष्टा है, ना दृश्य है, केवल दृष्टि है, और वही ब्रह्मं है, वही सत्य है। यानि जगत भी ब्रह्मं है और सत्य है।
एक उपमा लेते हैं। यह कहना केवल लहरें ही सागर है, गलत है, क्योंकि सागर लहरों के अलावा भी है। इसलिये लहर सागर नहीं है, पर सागर लहर भी है। और पानी की दृष्टि में ना सागर है ना लहर है, दोनों मिथ्या है, केवल पानी है। अब विचार कीजिये कि, लहर सत्य है या मिथ्या है?
इस ज्ञान को बुद्धि के स्तर पर समझने का प्रयत्न ना करें, क्योंकि लहर नहीं जान सकती है की सागर क्या है, पर लहर सागर हो सकती है, क्योंकि वह पहले से ही सागर है। लहर को सागर बनना नहीं है वह सागर ही है।
यहां जो लिखा है उसपर विश्वास ना करें, इसपर विचार करें। और तब तक विचार करें जब तक सभी अनुभव की मिथ्या प्रत्यक्ष ना हो जाये। या यह ना समझ आ जाये कि जो भी है वह मैं ही हूँ। मुझे मेरा ही अनुभव हो रहा है।
प्रणाम।
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