आखिर मैं हूँ कौन या मैं क्या हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?
यदि यह प्रश्न बहुत वेग के साथ किसीमें उठ गये हैं, इन प्रश्नों ने उसे बेचैन कर दिया है, या कोई इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने में लग गया है, तो समझ लो वह बहुत भाग्यशाली है।
कोई यदि इन प्रश्नों से बेचैन है, तो इसका अर्थ यह भी है कि उसने कोई भी उत्तर अपने अनुभव या तर्क पर जांचे बिना स्वीकार नहीं किया है। कहीं से पढ़कर या किसी से सुनकर, चाहे वह गुरु ही क्यों ना हों, यदि कोई उत्तर बुद्धि ने स्वीकार कर लिया तो यह प्रश्न उसे बेचैन नहीं करेंगे।
यह बेचैनी भी अध्यात्म मार्ग पर प्रगति का एक चिन्ह है। कृपया इस तरह के प्रश्नों का कोई भी उत्तर जल्दी से स्वीकार न करें, जब तक उसका हर पहलू पूरी तरह से स्पष्ट ना हो जाये।
यह भी सही है कि बुद्धि से सब कुछ समझना असम्भव है, लेकिन ज्ञान मार्ग पर बुद्धि ही पहला सहारा है।
जैसे कि हमने पहले लेखों में भी देखा, और हम आत्म विचार से देख सकते हैं कि मैं यह मनोशरीर यंत्र नहीं हूँ। तो मैं क्या हूँ?
क्या मैं वह नहीं जो मनोशरीर यंत्र का साक्षी या दृष्टा है। अब यह साक्षी कौन है या साक्षी क्या है? इसके क्या गुण हैं, यह कहां मिलेगा, कब मिलेगा आदि प्रश्न हमारे सामने आते हैं।
साक्षी के गुण क्या है, या मेरा स्वरूप क्या है?
दो उत्तर बहुत बार मिलते हैं वो हैं, मेरा स्वरूप सच्चिदानंद है या अहम ब्रह्मस्मी है। मोटे तौर पर इनका अर्थ है -
सत यानि सच-झूठ नहीं, बल्कि सत्ता, तत्व, अस्तित्व है।
चित यानि मन नहीं, अपितु चैतन्य, साक्षी, दृष्टा है।
आनंद यानि सुख-दुख नहीं बल्कि पूर्णता है।
ब्रह्मं यानि वृहद या अस्तित्व है।
मेरा अपने स्वरूप का ज्ञान, या मैं हूँ, यही एकमात्र ऐसा ज्ञान है जिसमें किसी इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं है, यह स्वप्रकाषित है और यह सर्वदा उपलब्ध है। साक्षी केवल है और क्योंकि वह सर्वदा दृष्टा है, इसलिये उसका कभी अनुभव नहीं होता है, वह बदलते हुऐ दृश्यों में होते हुए भी दृश्य रुप में नहीं मिलेगा।
हम या तो दृश्यों में खो जाते हैं या दृष्टा को पकड़ना चाहते हैं। समाधान कहीं बीच में है। समाधान मूल ज्ञान या आत्मज्ञान में है। आत्मज्ञान होने पर सारे संशय या सवाल समाप्त हो जाते हैं और एक निर्वचनीय अखण्ड शांति बनने लगती है। यह अखण्ड सच्चिदानंद ही मेरा नित्य स्वरूप है।
ज्ञान मार्ग को सीधा मार्ग इसलिये कहा गया है क्योंकि यहां कोई भी सीधे पहुंच सकता है, कोई प्रपंच नहीं है, बहुत स्पष्ट और सरल है। यह किसी के भी द्वारा अपरोक्ष अनुभव से अभी भी देखा जा सकता है।
इस ज्ञान की सरलता ही इसकी सबसे बड़ी बाधा भी है, क्योंकि अहंकार को सरल ज्ञान अच्छा नहीं लगता है। अहम को तो सालों तक साधना करनी है, शुद्धिकरण करना है, तपस्या करनी है आदि आदि, जिसके बाद शायद कभी आत्मबोध या आत्म साक्षात्कार हो पाये।
पर क्या यह धारणा सही है, कहीं मैं किसी मान्यता को तो सत्य नहीं मान बैठा हूँ? कृपया करके उसे मत मानें जो आप पढ़ रहे हैं, उसे ढूंढें जो अखण्ड चैतन्य है, जो मैं ही हूँ, यहीं हूँ, अभी हूँ, अनंत हूँ, अनादि हूँ।
प्रणाम।
बहुत ज्ञानपूर्ण लेख है।
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