जो सत्य है, माया में ठीक उसका उलटा प्रतीत होता है। जैसे माया में यह प्रतीत होता है कि:
- मैं जन्म लेता हूँ, मेरी मृत्यु होती है, लेकिन सत्य है कि शरीर जन्म लेता है और शरीर मरता है, मैं नहीं।
- मैं कर्ता हूँ, यह मेरे विचार हैं, यह मेरी भावनायें हैं आदि। सत्य है कि यह सब हैं, पर ना यह सब मैं हूँ ना यह मेरे हैं।
- जगत वैसा ही रहता है, मैं आता जाता हूँ। सत्य है कि जगत आता जाता है, मैं नहीं बदलता।
- वस्तुओं, सम्बन्धों, परिस्थितियों आदि से सुख मिलता है। सत्य है कि मेरा आनंद इनमें झलकता है।
- मेरे दुख के लिए कोई और जिम्मेदार है, मैं नहीं। वास्तविक्ता में जैसे सुख मिथ्या है, वैसे ही दुख भी मिथ्या है। और यदि जीवन में दुख है भी, तो उसके लिये मैं ही उत्तरदायी हूँ और निवारण मेरे द्वारा ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।
- व्यक्ति सत्य है। जबकि वास्तव में व्यक्ति एक अवधारणा है।
- वस्तुएं ठोस हैं। अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि वस्तुयें ठोस नहीं हैं, बल्कि स्पंदन हैं या केवल ऊर्जा है। और दो अनु परमाणु के बीच में बहुत अधिक खाली स्थान है।
इस तरह माया में सब कुछ उलटा होकर, असत्य सत्य जैसा प्रतीत होता है। आत्म विचार से हमें यह तो पता चलता है कि जो प्रतीत होता है, शायद वैसा है नहीं। कुछ तो रहस्य है जो किसी कारणवश छुप गया है।
क्या है जिसने सत्य छुपा लिया है, जिसने वास्तविक्ता को उलटा कर दिया है? क्या इस मायाजाल को समझना या इससे बाहर निकलना सम्भव है? आखिर माया है क्या?
जो भी परिवर्तनशील है वह माया है। या जो है ही नहीं वो माया है, या जो जैसा है नहीं पर कुछ और प्रतीत होता है वह माया या मिथ्या है। जैसे रेगिस्तान में पानी, आकाश का नीलापन, पृथ्वी का सपाट दिखना, रस्सी में सर्प, सूर्य का उगना और अस्त होना आदि।
जब यह समझ भी आ जाता है कि यह माया है, तो भी इनका अनुभव नहीं बदलता है। सभी अनुभव माया के ही अनुभव हैं, क्योंकि जो अनुभव कर रहा है उसका कोई अनुभव सम्भव नहीं है।
संक्षेप में माया सत्य को छुपा लेती है और असत्य सत्य की तरह से प्रतीत होता है।
माया ने आखिर यह भ्रम पैदा क्यों किया है?
विचार करने से पता चलता है कि और कोई विकल्प भी नहीं है। या तो मैं मुक्त हूँ या मैं लिप्त हूँ। दो ही विकल्प हैं, या तो मैं अपना स्वरूप जान गया हूँ और द्वैत में अद्वैत का और अद्वैत में द्वैत का दर्शन करते हुए मुक्त हूँ।
या फिर दूसरा विकल्प है कि मैं कुछ सुधारना चाहता हूँ, कुछ पाना चाहता हूँ, कुछ बदलना चाहता हूँ, किसी से दूर भागता हूँ, किसी को बनाये रखना चाहता हूँ आदि, तो मैं माया या अज्ञान में लिप्त हूँ।
इसलिये, जो भी है, जैसे है वैसे ही पूर्ण है। यह सब आवश्यक है कोई भी अनुभव होने के लिए, यह लीला मात्र है, जो की मेरी ही अनंत अभिव्यक्तियों में से एक अभिव्यक्ति है।
अंततः माया की कृपा से ही माया का ज्ञान होता है और दृष्टा अपना और माया का स्वरूप जान पाता है, या आत्मबोध होता है।
प्रणाम।
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