पेज

रविवार, 4 जुलाई 2021

आनंद मेरा नित्य स्वरूप है।


क्या है जो मुझे मेरे नित्य आनंद स्वरूप में स्थिर रहने से दूर करता है? क्या साधना करनी पड़ेगी, क्या प्रयास करूं कि मैं उसमें स्थित हो जाऊं? क्या ऐसा कोई मानव है जो सर्वदा आनंद में है? क्या मनुष्य के लिए हमेशा नित्य आनंदमय स्थिति में रहना सम्भव भी है? क्या आनंद कोई अनुभूति है, क्या यह कम ज्यादा होता रहता है? क्या आनंद जीवन का लक्ष्य है? सुख और आनंद क्या एक ही हैं?


आइये इसपर कुछ मनन करते हैं।


आनंद कोई भावना नहीं है जो कभी है, और कभी नहीं। ऐसा भी नहीं है कि जब तक मेरी इच्छा पूरी होती है तभी आनंद है, जब कुछ इच्छा अनुसार नहीं हुआ तो आनंद नहीं रहा।


सुख का विपरीत दुख है, पर आनंद का कोई विरोधात्मक शब्द ही नहीं है। सुख या दुख को चित्त के हर स्तर पर पाया जा सकता है। जैसे पंचन्द्रियों द्वारा जनित शारीरिक स्तर पर उसे सुख कह सकते हैं, भावनाओं के स्तर पर हर्ष और बुद्धि  के स्तर पर, जब कुछ नया जान लिया, जब कुछ अज्ञान का नाश हुआ, जब किसी समस्या का समाधान मिला, जब किसी प्रश्न का उत्तर मिल गया आदि, तो उसे प्रसन्नता कह देते हैं।


जब अज्ञान, मान्यताओं, अंधविश्वास आदि का नाश होता है और आत्मबोध हो गया, तो मैं ही आनंद स्वरूप हूँ, यह प्रकाषित हो जाता है। यह एक तरह की गहरी शांती की नित्य अवस्था है, जो बाहरी शांत या अशांत वातावरण, सुख दुख, इच्छा पूर्ति या इच्छा के विपरीत परिस्थितियां होना, इनसे अछूता है।


ऐसा भी नहीं है कि यदि आत्मज्ञान नहीं हुआ तो यह आनंद नहीं है, बस उसे अज्ञान के परदे ने ढक लिया है, जैसे सूर्य बादलों में कहीं छुप गया हो।


योगी या भक्त, जो भी इस आनंद रूपी अमृत को चख लेता है, वो फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता है। ज्ञानी जानता है कि आनंद कहीं नहीं मिलेगा या कुछ प्रयास से नहीं मिलेगा, क्योंकि वो कभी मुझसे अलग ही नहीं हुआ। ज्ञानी कुछ प्रयास नहीं करता, कुछ विशिष्ट अनुभव के पीछे नहीं भागता, वह जानता है कि आनंद को कहीं ढूंढना नहीं है, वो तो मैं स्वयं ही हूँ।


ज्ञानी, सच्चा भक्त, और सिद्ध योगी, अपने आनंद स्वरूप में स्थित हैं, उसके साक्षी मात्र हैं और तृप्त हैं। 


ज्ञानी तो कुछ करता हुआ सा नहीं दिखता है, कुछ अलग भी नहीं प्रतीत होता है, वो समझ गया है कि समयहीनता है, ज्ञानहीनता है, देश या स्थान माया है, कारणहीनता है, सभी अनुभव माया हैं, प्रतिति हैं। ना ही मैं दृष्टा हूँ, ना ही मैं दृश्य हूँ, केवल दृष्टि मात्र है, केवल अद्वैत ही है। यह जो अभी है वही सम्पूर्ण अस्तित्व है, वही पूर्ण है, नित्य है, चैतन्य है, अखण्ड है, और वही परम आनंद है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें