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बुधवार, 21 जुलाई 2021

दुख और दर्द।


दर्द के कई कारण हो सकते हैं। जैसे कुछ उलटा सीधा या ज्यादा खा लिया तो पेट में दर्द हो गया, हाथ पर हथौड़ा लग गया, कहीं गिर गये और चोट लग गई आदि अनेक कारण हो सकते हैं। इलाज कर लिया, दवाई ले ली, सो गये, ध्यान कहीं और चला गया आदि, यदि कारण हटा दिया तो दर्द का निवारण हो गया। दर्द उत्तरजीविता के लिए आवश्यक है, जीवन को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।


लेकिन सभी दुखों का एक ही मूल कारण है, और आप समझ ही गए होंगे, वो है अज्ञान। अपने आप को सीमित मान लेना अज्ञान है, किसी भी वस्तु से तदात्म्य करके उसको मैं या मेरा मान लेना, जैसे जगत, शरीर, मन, बुद्धि, भावनायें, विचार, संस्कार, इच्छायें, व्यक्ति, सम्बन्धी, देश, धर्म, व्यक्तित्व, कर्ता, भोक्ता आदि आदि। बहुत लम्बी सूची है, पर मूल अज्ञान एक ही है कि मैं अन्य सबसे भिन्न हूँ। इसी अज्ञानवश जो है उससे आसक्ति हो जाती है, और जो प्राप्त नहीं है उसके पीछे भागने लगते हैं। अज्ञान के सिवा दुख का और कोई कारण नहीं है।


दर्द से पूरी तरह से बचा नहीं जा सकता है, पर दुख स्वैच्छिक और व्यक्तिनिष्ठ है। बुद्ध भगवान ने भी कहा है, दुख है, दुख का कारण है और दुख का कारण हटाने से उसका निवारण भी सम्भव है।


दुख से मुक्त तो सब होना चाहते हैं, पर यह नहीं जानते हैं कि ये कैसे होगा। दुख का कारण किसी परिस्थिति, वस्तु, या व्यक्ति को मान लेते हैं, अज्ञानी यह नहीं जान पाता है कि अज्ञान का नाश ही दुख से मुक्ति है। ज्ञान मार्ग पर यही होता है, अज्ञान, मान्यताओं, धारणाओं, मतारोपण आदि का पूर्ण रुप से नाश हो जाता है। 


अज्ञान का नाश होता है जब यह स्पष्ट समझ होती है कि, मैं कर्ता नहीं हूँ, कोई कर्ता है ही नहीं, तो सभी कर्मों का नाश हो गया; मैं शरीर नहीं हूँ तो जन्म मरण से मुक्ति हो गयी; और मैं मन, भावना, बुद्धि, अहंकार नहीं हूँ तो आत्मबोध हो गया। और जब यह जान लिया कि मैं ही सब कुछ हूँ, सब मुझमें हैं और मैं ही सबमें हूँ, तो ब्रह्मज्ञान हो गया। अब इस स्तर से दुख को ढूँढिये, वो कहीं नहीं मिलेगा। 


पहले चरण पर दुख से मुक्ति है, और दूसरे चरण पर जो दुखी है उससे भी मुक्ति हो जाती है। यही निर्वाण है, यहीं संसार में निर्वाण है, कहीं और मत ढूंढें उसे, बस गुरु की शरण लें और मनुष्य जीवन को व्यर्थ ना होने दें।


दुख को स्वीकार करें उससे दूर ना भागें, सुख को भी स्वीकार करिये उसके पीछे ना भागें, अपने आनंद स्वरूप में स्थित हो जायें, जो की आपका मौलिक अधिकार है। दुख माया है, सत्य नहीं है, दुख का कोई भी कारण हो, मैं तो उससे सर्वदा उससे अछूता ही हूँ, निर्विकार हूँ, निर्मल हूँ, निराकार हूँ और सभी आकारों में भी मैं ही हूँ।


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