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शनिवार, 24 जुलाई 2021

साक्षी और साक्षी भाव।


साक्षी वो सत्ता या चैतन्य है जो यह शब्द इस समय पढ़ रहा है। उसको कहीं दूर ना समझें, उसे ढूंढने ना निकल पड़ें, वो कहीं नहीं मिलेगा, वो कभी नहीं मिलेगा। इसके दो कारण हैं, पहला वह कहीं गया नहीं तो मिलेगा कैसे, जो दूर है जो कभी अप्राप्त है वो मिल सकता है, पर साक्षी कभी भी अप्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये वो प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 


और दूसरा कारण है कि वो निर्गुण है, जब निर्गुण है तो कहां ढूँढे उसे, जो भी अनुभव है वो केवल गुणों का अनुभव होता है, तत्व का नहीं। जो निर्गुण है वो हुआ जा सकता है, पर उसका अनुभव नहीं किया जा सकता है, और वो आप पहले से ही हैं।


तो क्या उपाय है, उपाय यही है कि मैं ही साक्षी हूँ, मैं ही तत्व हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं है। यदि कुछ अन्य है और वो मुझसे भिन्न है, तो मुझे उसका अनुभव होना सम्भव नहीं है। इसलिये यही कह देते हैं कि मुझे मेरा ही अनुभव हो रहा है, माया या प्रतिति के रुप में।


मैं ही साक्षी हूँ, मैं ही वो चैतन्य हूँ जो हर अनुभव का दृष्टा हूँ, जब यह जागृति है, जब यह प्रकट है, तो वही साक्षी भाव है, वही चेतना है। चेतना आती जाती रहती है, पर साक्षी कहीं नहीं जाता, वो नित्य है, अपरोक्ष है, अभी है और सत्य है। स्वप्न से तो सभी जागते हैं, तुम जागृति से जाग जाओ तो जागृत अवस्था स्वप्न प्रतीत होगी और स्वप्न में जागृति होगी। चाहे घंटों सो लें जागते तो क्षण भर में ही हैं।


अपने आप को कुछ सीमित व्यक्तित्व मत समझो, तुम नहीं जानते हो कि तुम कौन हो, बस मान लिया है। मानना ही है, तो अपने आप को ब्रह्मं ही मान लो, फिर ढूँढो कि मैं ब्रह्मं क्यों नहीं हो सकता हूँ? उलटा क्यों करते हो, कि मैं जीव हूँ यह मान लिया है, और मैं कुछ साधना करके ब्रह्मं बनना चाहता हूँ। ऐसे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा, फिर एक पैर पर खड़े होकर चाहे सालों तपस्या कर लें। जब तक मूल अज्ञान का नाश नहीं हुआ तब तक साधना फलित नहीं होगी। 


एक पिता, पुत्र, भाई या पति आदि को एक आदमी बनने के लिए कितनी साधना करनी पड़ेगी? ऐसे ही हमें अज्ञानवश धारण करी हुई उपाधियों को, जो हमने अपने उपर थोप रखी हैं, उनको हटाकर यह देखने में की मैं ही ब्रह्मं हूँ, कितना समय लगेगा। 


अन्त में यही साधना है कि कोई साधना नहीं है। जो मुक्त है वो सर्वदा मुक्त है, वो और अधिक मुक्त नहीं हो सकता है। जो बंधन में है वो कभी मुक्त ना हो सकेगा, चाहे कितना भी प्रयास कर ले। सौभाग्यवश मैं पहले से ही पूर्ण, मुक्त, नित्य चैतन्य हूँ। सब प्रयास छोड़कर अपने स्वरूप में विश्राम करूं, और क्या करना रह गया है इस जीवन में। 


🙏🙏🙏

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहोत उत्तम ज्ञान आपने साझा किया है यहाँ,पढ़कर आनंद आगया।🙏
    मै ही पूर्ण, मुक्त, नित्य चैतन्य हूँ। 🙏🌺

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    1. बहुत अच्छा लगा जानकर कि आपके कुछ काम आया।
      🙏🙏

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  2. Sidhant roop me aap ki bat bilkul sahi h,lakin atmgyan hone ke bad bhi chetna ya sakshi bhav me sithit hone me pura jivan chla jata h 🙏

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    1. आत्मज्ञान होने के बाद, जब पता चल जाता है कि कोई कर्ता है ही नहीं तो जीवन में रह ही क्या गया। इसलिये जैसे जो सामने आता है, उसके प्रति साक्षी भाव में रहते हुए ही जीवन बिताना है।
      🙏🙏

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  3. Aswin ji parnam darsta ki koi ichha nahi h,phir atmgyan hone ke bad bhi sadhak me buri ichha kaise utpann hoti h? Kripa maragdarsan de

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  4. अच्छा बुरा तो एक मान्यता है। जो आपको अपने स्वरूप से दूर करे उसे बुरा कह दिया जाता है। पर आपको अपने स्वरूप से दूर कौन कर सकता है?

    आप अपने स्वरूप को पहचान लें फिर सभी कुछ वही होते हुऐ भी सभी कुछ भिन्न दिखने लगेगा। एक संम्यक दृष्टि आ जाती है। सब कुछ अपना ही रुप दिखेगा फिर कैसे कुछ बुरा होगा।

    जब कोई कर्ता है ही नहीं तो क्या अच्छा और क्या बुरा। जो जैसा है वैसा ही सम्पूर्ण है।

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