दृष्टा क्या है?
यहां यह स्पष्ट करना उचित है कि दृष्टा यानि केवल वो नहीं है जो आँखों से देख रहा है, बल्कि दृष्टा मतलब जो किसी भी इन्द्रिय के द्वारा कुछ भी अनुभव कर रहा है, जैसे जो सुन रहा है, स्वाद ले रहा है, समझ रहा है आदि आदि।
जो देख रहा है, जो साक्षी है, जो अपरिवर्तनीय है, वह दृष्टा है। दृष्टा में कोई गुण नहीं हैं, उसको नकारात्मक ज्ञान या नेती नेती से ही जाना जा सकता है।
दृश्य क्या है?
उसी तरह से जो भी अनुभव में है, या जिसका भी अनुभव सम्भव है, जो परिवर्तनीय है, वह दृश्य है। शरीर, इन्द्रिय, मन आदि साधन हैं जिनके माध्यम से अनुभव होते हैं। पर आश्चर्य है कि ये स्वयं भी अनुभव में आते हैं।
कोई भी वस्तु अनुभव में कैसे आ सकती है? क्या वह मेरे अंदर समा जाती है? यदि अंदर नहीं समाती है तो अनुभव कैसे हो सकता है? यदि वस्तु मेरे अंदर समा गई तो कोई और उसे कैसे अनुभव कर सकता है? बाहर अंदर क्या यह सत्य हैं, क्या यह स्थायी संदर्भ हैं? अंदर बाहर की कोई स्थाई सीमा नहीं दिखती है, कभी शरीर यह सीमा है, कभी मन, कभी दृष्टा आदि।
यदि कुछ है जिसका परिवर्तन नहीं होता हो तो वह अनुभव में भी नहीं आ सकता है। लेकिन जो परिवर्तित हो रहा है उसका तत्व क्या है?
यदि दृष्टा का तत्व दृश्य से भिन्न हो तो क्या उसका अनुभव होना सम्भव है? क्या दृष्टा दृश्य को एक दूसरे से अलग करके देखा जा सकता है? यदि दृश्य नहीं है तो दृष्टा भी नहीं है, और यदि दृष्टा नहीं है तो दृश्य भी नहीं है।
इन प्रश्नों पर स्वयं विचार करना चाहिए। तब वह ज्ञान होता है जो किसी किताब में पढ़कर नहीं मिलेगा, जो स्कूलों में नहीं सिखाया जाता है।
अब थोड़ा और गहराई में उतरते हैं।
दृष्टा सदैव दृष्टा है वो दृश्य नहीं है, क्योंकि यदि दृष्टा को कोई जान रहा है तो वह दृश्य हो गया, दृष्टा नहीं रहा।
सभी अनुभव परिवर्तनीय है या अनित्य हैं और अनित्य कभी अनित्य को जान नहीं सकता है। अनित्य को जानने वाला वो होना आवश्यक है, जो नित्य है।
अनुभव या दृश्य अनेक हैं, या सभी कुछ अनित्य है। पर सभी अनुभवों को अनुभव करने वाला दृष्टा एक ही है। दृष्टा दो नहीं हो सकते हैं, नहीं तो उनमें से एक दृश्य हो जायेगा। या फिर उन दोनों को देखने वाला कोई और लाना पड़ेगा और फिर से वो दोनों दृश्य हो जायेंगे और दृष्टा एक ही रहेगा।
दृश्य अनेक हैं, जैसे वस्तु, जगत, इन्द्रियां, मन, विचार, भावनायें, अहंकार, बुद्धि आदि आदि। पर दृष्टा एक ही है।
ढूंढने पर दृष्टा में कोई गुण नहीं मिलता है, यानि दृष्टा निर्गुण है। पर दृष्टा नहीं है यह भी नहीं कह सकते हैं, यह कहना अर्थहीन है, क्योंकि कौन कह रहा है यह? जो भी यह जान रहा है, वही दृष्टा है। जो भी यह पढ़ रहा है, वही दृष्टा है।
यह ना समझ लें कि जगत को मन देख रहा है। मन स्वयं एक दृश्य है, दृष्टा नहीं। दूरबीन तारों को नहीं देख सकती है। आंखें दृश्य को नहीं देख सकती हैं, मन देखता है। मन कुछ नहीं देख सकता है, केवल दृष्टा देखता है। दृष्टा को जाना नहीं जा सकता है, पर दृष्टा हुआ जा सकता है।
अब एक और सवाल आता है कि यदि दृष्टा दृश्य से भिन्न है तो क्या दृष्टा दृश्य का अनुभव कर सकता है? यदि दृष्टा दृश्य का अनुभव कर रहा है तो क्या दृष्टा में कुछ परिवर्तन नहीं आ जायेगा और वह स्वयं दृश्य नहीं बन जायेगा?
ध्यान देना आवश्यक है कि अनुभव जाना जा सकता है, लेकिन अनुभव का तत्व क्या है यह नहीं जाना जा सकता है। इसी तरह से दृष्टा का तत्व भी नहीं जाना जा सकता है। तो कहीं दोनों एक ही तो नहीं हैं?
इन प्रश्नों पर विचार करने से यह पता चलता है कि ना दृष्टा है, ना दृश्य है, केवल दृष्टि है। यह अदभुत है, और यही अद्वैत है, यही परम सत्य है, यही तत्व ज्ञान है। और यही आत्मबोध है कि मैं ही यह तत्व हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं है, मैं ही दृष्टि हूँ।
प्रणाम।
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