क्या है आनंद? कहां मिलेगा यह? कौन है जो आनंद में है? यदि मेरा स्वरूप आनंद है तो यह आता जाता क्यों है? क्या करूं जो यह स्थायी हो जाये? क्या आनंद और सुख एक ही हैं?
जब मुझे वो मिल जाये जो मैं चाहता हूँ, मनोशरीर की कोई इच्छा पूरी हो जाये, कोई प्रिय संवेदना है, कुछ भोग वस्तु भोगने के लिए मिल जाये आदि, तो मैं उसको सुख कहता हूँ। और इसका विपरीत यदि कुछ होता है तो मैं उसको दुख कहता हूँ।
सुखद अनुभवों की और चाहत राग है और दुख से दूर भागना द्वेष है। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे जीवन में सुख दुख के लिए कोई बाहरी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति जिम्मेदार है। थोड़ा ध्यान देने पर यह पता चलता है कि यह बात सही नहीं है।
जो वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति सुख दे रही थी, वही अत्यधिक मात्रा होने पर या किसी अन्य समय पर बहुत दुख भी दे सकती है।
सुख दुख चित्त निर्मित है, काल्पनिक है, मिथ्या है, परिवर्तनीय है, वैकल्पिक हैं, मान्यताओं और अज्ञान पर निर्भर करते हैं।
कोई सुख या दुख स्थायी नहीं रहता है, बदलता रहता है, एक वृत्ति या चक्र की तरह आता जाता रहता है। यदि सुख दुख मेरा स्वरूप होता तो मैं उनको बदलता और आता जाता हुआ नहीं देख सकता था।
जब दुख का अभाव है और सुख से विरक्ति है, तो जो स्थिति है वो आनंद है। सुख का विपरीत दुख है और दुख का विपरीत सुख है, पर आनंद का विलोम या विपरीत कुछ नहीं है। सुख दुख का कोई कारण प्रतीत होता है, आनंद का कोई कारण नहीं है। सुख दुख अस्थायी हैं, कुछ देर तक ही रहते हैं, आनंद स्थायी है। जब मान्यतायें, धारणायें, बनावटीपन, अज्ञान आदि का अभाव है तो मैं आनंद में पहले से ही हूँ।
हमने बेचैनी, चिंता, सुख दुख, राग द्वेष को इतना स्वाभाविक मान लिया है कि यदि कोई कहे कि यह मिथ्या है, झूठ है, मेरा स्वभाव नहीं है, तो अधिकतर लोग इसको मानने से इनकार कर देंगे।
निद्रा में कुछ नहीं है, ना सुख ना दुख, पर निद्रा से उठकर यह अवश्य पता चलता है कि उस अवस्था में मैं अपने आनंद स्वरूप में स्थिर था।
तो क्या करें, क्या हमेशा सोते रहना कोई विकल्प है? जागृत अवस्था में मैं अपने निज आनंद स्वरूप को क्यों नहीं पहचान पाता हूँ, क्या है विघ्न?
उत्तर बहुत सरल है कि अज्ञान का नाश, मान्यताओं का नाश, धारणाओं को उनके वास्तविक रुप में देखना, इसके बाद जो बचता है वो आनंद है। आनंद मेरा निज स्वरूप है। कुछ पाना नहीं है, जो इकठ्ठा किया है उसको छोड़ देना है, उसपर पकड़ ढीली करनी है।
आनंद को कहीं बाहर ढूंढने जाना निरर्थक है, वह बाहर कहीं नहीं मिलेगा। एक बार अपने अंदर ही उसको पहचान लिया, तो बाहर भी हर घटना, हर व्यक्ति, हर वस्तु मुझे मेरे निज आनंद स्वरूप का स्मरण करायेगी, और क्या उपलक्ष्य हो सकता है इनका।
यह जीवन कोई संघर्ष नहीं है सुख के पीछे या दुख से दूर भागने का। बस अपने अज्ञान का नाश करना है। अज्ञान का अर्थ अपने आप को कोई व्यक्ति, मनोशरीर या यह समझना कि 'मैं कुछ हूँ'।
आत्मज्ञान में 'मैं कुछ हूँ' का अभाव होता है। या तो यह निश्चित पता होता है कि 'मैं क्या हूँ' यह जाना नहीं जा सकता है यानि अज्ञेय है, या फिर यह जान लेना कि जो भी अस्तित्व है, सारा का सारा ब्रह्माण्ड 'मैं' ही हूँ।
जब ज्ञान के प्रकाश के द्वारा अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है तो जो बचता है वो अखण्ड निरंतरता है, निर्मलता है, निश्छलता है, या सरल शब्दों में 'आनंद' है।
थोड़ा विचार करें कि क्या है जो मुझे आनंद की नैसर्गिक स्थिति में स्वतः रहने में बाधा है? क्या वह बाधा बाहर है या अंदर? क्या कोई और इस बाधा को दूर कर सकता है? क्या यह बाधा काल्पनिक है या सत्य?
अंततः ज्ञान का बोझ और सभी तरह के प्रयासों को त्याग कर अपने निज चैतन्य और नित्य आनंद स्वरूप में इसी क्षण विश्राम करें।
प्रणाम।
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