रविवार, 21 मार्च 2021

मुक्ति का भ्रम।

मुक्ति का अर्थ क्या है? 


यह समझने से पहले यह जानना ज्यादा आवश्यक है कि बंधन क्या है, बंधन का कारण क्या है और बंधन में कौन बंधा हुआ है? यदि इन प्रश्नों के उत्तर मिल गये तो मुक्ति का सही अर्थ भी ज्ञात हो जायेगा।


मैं शरीर हूँ, या मन हूँ, या मैं सृष्टि से कुछ भिन्न हूँ, मैं कोई व्यक्ति हूँ, यह अज्ञान ही बंधन है। इन मान्यताओं के नाश होते ही बंधन भी नहीं रह सकता है। 


यदि देखें कि बंधन में कौन बंधा हुआ है तो पता चलता है कि ऐसा कोई व्यक्ति कहीं नहीं है जो बंधन में बंधा हुआ है।


भौतिक शरीर पंचतत्वों से बना हुआ एक यंत्र है, वह हमेशा वातावरण से एक ही है और भौतिक नियमों के अनुसार कार्यरत रहता है। पंचतत्वों से उभरता है, कुछ समय प्रकट रहता है और फिर से उनमें ही विलीन हो जाता है। मैं यह शरीर नहीं पर मैं इस भौतिक शरीर का दृष्टा हूँ।


मन, अहंकार, भावनायें, बुद्धि, सुख दुख, वासनायें, स्मृति, संस्कार आदि सभी परिवर्तनीय है और चित्त के नियमों के अनुरूप अपना कार्य करते रहते हैं। इनको यदि एक शब्द में कहें तो यह चित्तवृत्ति हैं। और मैं इनमें से कोई भी चित्तवृत्ति नहीं हूँ क्योंकि मैं इनको आते जाते हुऐ देख सकता हूँ। मैं इनका दृष्टा हूँ तो मैं यह भी नहीं हो सकता हूँ।


शरीर या चित्त दोनों अनुभव मात्र हैं। मैं शरीर नहीं हूँ, और ना ही मैं चित्त हूँ, इसलिये वह नियम भी मुझे बांध नहीं सकते हैं जो इनको नियंत्रित करते हैं। 


यदि कुछ बंधन में है तो वह यह अज्ञान या भ्रम है कि मैं यह मनोशरीर हूँ और मैं मन में उठती हुई इच्छाओं को पूरा नहीं कर पा रहा हूँ। यह बंधन प्रतीत होता है, जो की एक विचार मात्र ही है, जिसको भी देखा जा सकता है। 


क्या मुक्ति का अर्थ यह है कि जो मन में आये मैं वही करता रहूं? ऐसे तो अनर्थ हो जायेगा, मन में तो अनंत इच्छायें उठती हैं और उनमें से कुछ का पूरा ना होना ही मेरे और अन्य व्यक्तियों के हित में होता है। यह हम सभी का अपना अनुभव है।


मुक्ति कहीं वह तो नहीं कि मैं मुक्त हूँ इच्छा पूर्ति के दबाब से, मैं जान गया हूँ कि सुख इच्छा पूर्ति में नहीं है। मुक्ति इसमें है कि मुझमें यह चेतना जागृत है की कौनसी इच्छा पूर्ति करना उचित है और कौनसी त्यागना ज्यादा हितकारी है। सुख दुख से परे मेरा निज स्वरूप परमानंद है। 


ज्ञान का अभाव और उसके कारण उत्पन्न अहमभाव, बुद्धि में यह भ्रम पैदा कर देता है, कि 'मैं कुछ हूँ' और इसलिये जो 'मैं' नहीं हूँ वह मुझसे भिन्न है। इस अज्ञान को सत्य मान लेना, यही बंधन है।


जैसे ही यह भ्रम नहीं रहता है कि 'मैं बंधन में हूँ', उसी क्षण 'मुझे मुक्त होना है' यह भ्रम भी नहीं रहेगा। 


मुक्ति सर्वदा है। जो बंधन में है वो कभी मुक्त नहीं हो सकता है, जो मुक्त है वो कभी बंधन में था ही नहीं। 


मुक्त होने के लिए कोई तो होना चाहिए जो मुक्त होगा। मुक्त हो गया तो मन कहां जायेगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि जन्म मरन से मुक्ति मिल जाती है। पर यहां थोड़ा विचार करें कि कौन है जो जन्म लेता है या मरता है। कह सकते हैं कि, शरीर का जन्म होता है, शरीर विलय होता है। क्योंकि मैं शरीर नहीं हूँ, तो मेरा जन्म या मृत्यु भी नहीं हुई है। या यह भी कह सकते हैं कि मैं कभी बंधन में था ही नहीं, और इसलिये मैं सर्वदा मुक्त ही हूँ। 


यह निश्चित रूप से जानकर, करने के लिए क्या रह गया है? यहां कौन है कर्ता जो कुछ कर रहा है? यहां कौन है जो यह मान बैठा है कि मैं बंधन में हूँ? और कौन मुक्ति चाह रहा है?


जब तक किसी भी नाम रुप को मैनें 'मैं' मान लिया है तो मुक्ति सम्भव नहीं है। जब नाम रुप के बीच में भी मुझे अपना अपरिवर्तनीय तत्व दिखाई देता है, एक दूरी दिखाई देती है मुझमें और चित्त में, तो 'मैं' मुक्त ही हूँ।


यही निश्चितता यही प्रज्ञा की मेरा नित्य स्वरूप परम आनंद है, चैतन्य है, निर्मल है, निराकार है, निर्विकार है, ब्रह्मं है, तो यहीं इसी क्षण मुक्ति है, और यही नित्य आनंद आत्मबोध का चिन्ह है।


प्रणाम।

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