1) अन्तरमन
अपने अन्तर मन में उन्हें देखो,
सबमें वही मिलेंगे।
ज्ञान मार्ग पर पूजा नहीं,
नहीं तो तुम्हारी पूजा ही कर लेता।
सभी कुछ माया है,
नहीं तो तुमको सत्य ही मान लेता।
One of my old friend asked me "what does purposelessness mean to you? Can you be without any purpose at any point in time?"
साक्षी वो सत्ता या चैतन्य है जो यह शब्द इस समय पढ़ रहा है। उसको कहीं दूर ना समझें, उसे ढूंढने ना निकल पड़ें, वो कहीं नहीं मिलेगा, वो कभी नहीं मिलेगा। इसके दो कारण हैं, पहला वह कहीं गया नहीं तो मिलेगा कैसे, जो दूर है जो कभी अप्राप्त है वो मिल सकता है, पर साक्षी कभी भी अप्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये वो प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
दर्द के कई कारण हो सकते हैं। जैसे कुछ उलटा सीधा या ज्यादा खा लिया तो पेट में दर्द हो गया, हाथ पर हथौड़ा लग गया, कहीं गिर गये और चोट लग गई आदि अनेक कारण हो सकते हैं। इलाज कर लिया, दवाई ले ली, सो गये, ध्यान कहीं और चला गया आदि, यदि कारण हटा दिया तो दर्द का निवारण हो गया। दर्द उत्तरजीविता के लिए आवश्यक है, जीवन को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।
तीन तरह का मौन या शांती सम्भव है।
पहला है ध्वनि का ना होना, भौतिक रुप से आवाज का नहीं होना या मुहँ से नहीं बोलना।
दूसरा है मन में विचारों का प्रवाह कम हो जाना, या नकारात्मक, निराशावादी विचारों में नहीं उलझना।
क्या है जो मुझे मेरे नित्य आनंद स्वरूप में स्थिर रहने से दूर करता है? क्या साधना करनी पड़ेगी, क्या प्रयास करूं कि मैं उसमें स्थित हो जाऊं? क्या ऐसा कोई मानव है जो सर्वदा आनंद में है? क्या मनुष्य के लिए हमेशा नित्य आनंदमय स्थिति में रहना सम्भव भी है? क्या आनंद कोई अनुभूति है, क्या यह कम ज्यादा होता रहता है? क्या आनंद जीवन का लक्ष्य है? सुख और आनंद क्या एक ही हैं?
आइये इसपर कुछ मनन करते हैं।
अहम वृत्ति यानि जिसको भी 'मैं' समझा है, और मैं समझकर उससे तदात्म्य बना लिया है। तदात्म्य का अर्थ है, कुछ भी 'यह' है उसको 'मैं हूँ' या 'यह मैं हूँ' ऐसा मान लेना। अहम वृत्ति उत्पन्न होने के साथ ही बाकी सब 'अन्य' हो जाते हैं। फिर वो चाहे अन्य वस्तु हो या अन्य व्यक्ति। अहम भाव उत्पन्न होते ही अंदर - बाहर की कल्पना का भी जन्म हो जाता है।
मैं चित्त में उठने-गिरने वाली अनेक वृत्तियों का दृष्टा हूँ। चित्त की विभिन्न अवस्थायें आती जाती रहती हैं, मैं इन अवस्थाओं के साथ नहीं बदलता। चित्त का एक वस्तु की तरह अध्यन करने से उसके प्रति आसक्ति कम हो जाती है, और एक दूरी बन जाती है मुझमें और चित्त की अनेक वृत्तियों में। 'मुझमें' यानि चैतन्य स्वरूप में और चित्त की अनेक वृत्तियों में।
जो भाग सकता है वो रुक भी सकता है। दुर्भागवश यह सामान्य ज्ञान दुनिया में अधिकतर नदारद है।
मन बहुत इधर उधर भटकता रहता है, थोड़ा उसे रुकने दें। आत्मबोध से मन की गति कम होने लगती है, क्योंकि आत्मन से अद्भुत दुनिया में कुछ नहीं है।
पहला है 'नेती नेती'।
अद्वैत में बहुत प्रचलित, इन आसान पर अध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण शब्दों का अर्थ है, 'यह नहीं' 'यह नहीं' (न + इति)।
यदि किसी क्रिया को बार बार दोहराने से एक ही तरह के परिणाम आते हैं तो उनको हम नियम कह देते हैं।
भौतिक जगत में कई नियम दिखते हैं जो की विज्ञान ने समय समय पर सिद्ध किये हैं जैसे न्यूटन के गति के नियम, गुरुत्वाकर्षण का नियम, ऊर्जा का संरक्षण, थर्मोडायनामिक्स के नियम, सापेक्षता का सिद्धांत आदि।
क्या है आनंद? कहां मिलेगा यह? कौन है जो आनंद में है? यदि मेरा स्वरूप आनंद है तो यह आता जाता क्यों है? क्या करूं जो यह स्थायी हो जाये? क्या आनंद और सुख एक ही हैं?
मुक्ति का अर्थ क्या है?
यह समझने से पहले यह जानना ज्यादा आवश्यक है कि बंधन क्या है, बंधन का कारण क्या है और बंधन में कौन बंधा हुआ है? यदि इन प्रश्नों के उत्तर मिल गये तो मुक्ति का सही अर्थ भी ज्ञात हो जायेगा।
जो सत्य है, माया में ठीक उसका उलटा प्रतीत होता है। जैसे माया में यह प्रतीत होता है कि:
- मैं जन्म लेता हूँ, मेरी मृत्यु होती है, लेकिन सत्य है कि शरीर जन्म लेता है और शरीर मरता है, मैं नहीं।
- मैं कर्ता हूँ, यह मेरे विचार हैं, यह मेरी भावनायें हैं आदि। सत्य है कि यह सब हैं, पर ना यह सब मैं हूँ ना यह मेरे हैं।
आखिर मैं हूँ कौन या मैं क्या हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?
यदि यह प्रश्न बहुत वेग के साथ किसीमें उठ गये हैं, इन प्रश्नों ने उसे बेचैन कर दिया है, या कोई इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने में लग गया है, तो समझ लो वह बहुत भाग्यशाली है।
यह वस्तुयें, शरीर, मन, विचार, इच्छायें, वासनायें, भावनायें आदि मेरा कुछ नहीं है।
मेरा होने के लिए दो होना आवश्यक है। यह सब मेरा नहीं है, यह सभी भी मैं ही हूँ। दो नहीं हैं, केवल अद्वैत ही है।
दृष्टा क्या है?
यहां यह स्पष्ट करना उचित है कि दृष्टा यानि केवल वो नहीं है जो आँखों से देख रहा है, बल्कि दृष्टा मतलब जो किसी भी इन्द्रिय के द्वारा कुछ भी अनुभव कर रहा है, जैसे जो सुन रहा है, स्वाद ले रहा है, समझ रहा है आदि आदि।
जो देख रहा है, जो साक्षी है, जो अपरिवर्तनीय है, वह दृष्टा है। दृष्टा में कोई गुण नहीं हैं, उसको नकारात्मक ज्ञान या नेती नेती से ही जाना जा सकता है।
मैं मुक्त नहीं हो सकता हूँ, 'मैं' से मुक्त हुआ जा सकता है। और यदि कोई मैं से भी मुक्त होना चाहता है, तो वह भी बंधन में है।
अज्ञान है तो मैं सर्वदा बंधन में हूँ, अज्ञान का अभाव है तो मैं सर्वदा मुक्त ही हूँ।
जगत सत्य ही तो है, उसीमें तो यह शरीर है, यदि शरीर ही नहीं रहेगा तो मैं भी नहीं रहूँगा। इस तरह की कई मान्यतायें हो सकती हैं, पर जैसा हमने पहले लेखों में देखा की इनको इतनी आसानी से स्थापित नहीं किया जा सकता है। बल्कि मनन करने पर तो कुछ और ही तथ्य उभरते हैं।
यदि कोई कहता है कि जगत मिथ्या है, तो उससे भी पूछना चाहिये कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? केवल किसी के कहने पर उसे स्वीकार ना करें। यदि उत्तर मिलता है कि यह सत्य है क्योंकि यह किसी शास्त्र में लिखा है, तो थोड़ा सावधान हो जायें। पूछें, पर आपका क्या अनुभव है और यह कैसे तार्किक है? यदि फिर भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिले तो कहीं और उत्तर ढूंढना जरूरी है।
यह जगत जिसको हम सत्य मान बैठे हैं, क्या वह वाकई सत्य है? क्या यह नित्य है?
कहीं यह हमारी मान्यता तो नहीं हैं कि, जागृत अवस्था सत्य है, जगत सत्य है, मैं तो आता जाता रहता हूँ, जगत तो तब भी था जब मैं नहीं था या जब मैं नहीं रहूँगा आदि आदि।
क्या यह मान्यतायें सही हैं, क्या इन धारणाओं में कुछ भूल तो नहीं है?
थोड़ा सा मनन करने पर एक बिल्कुल भिन्न तथ्य उभरता है। यह सभी दृष्टिकोण तभी तक सही हैं जब तक हमने अपने आप को यह शरीर या मन मान लिया है। पर क्या मैं वाकई शरीर या मन हूँ?
अध्यात्म में क्या मिलेगा? आखिर क्यों करूं में अपने स्वरूप की खोज?
जब हम अध्यात्म में रुचि लेते हैं तो सबसे पहले यही सोचते हैं, यहां मुझे क्या मिलेगा? यह सवाल इसलिये उठता है, क्योंकि अभी तक संसार में यही सीखा है, कि प्रयत्न मैं तभी करूंगा जब बदले में कुछ मिले। और यह धारणा इतनी गहरी बैठ गई है कि साधना भी इसलिये करते हैं कि मुझे कुछ मिले, फिर चाहे वह सांसारिक हो या मानसिक या अध्यात्मिक। हम अध्यात्म में भी प्रतियोगिता करने लगते हैं!!
इसमें बड़ी भूल है। अध्यात्म में कुछ मिलेगा नहीं, बल्कि जो है वह भी छूट जायेगा, जैसे झूठी मान्यतायें, सुख से आसक्ति, दुख से दूर भागने की प्रवृत्ति, आवेग या अचेतना में किये गये कर्म, कर्ता भाव आदि।
आध्यात्मिक मार्ग की शुरुआत कहां से करूं?
यह प्रश्न नये साधक के मन में आना स्वाभाविक ही है। ऐसा इसलिये है क्योंकि विभिन्न माध्यमों जैसे पुस्तकों, नेट, प्रवचनों आदि में इतनी सूचना है, की उसमें तत्व को ढूंढना ऐसा है जैसे भूसे के ढेर में सुईं को ढूंढना।
तो उपाय क्या है? कैसे मैं सत्य को असत्य से अलग करके देख सकता हूँ? कैसे दूध का दूध और पानी का पानी किया जाये? बल्कि यह कहना उचित है कि कैसे पानी में से दूध को अलग किया जाये?