आध्यात्मिक मार्ग की शुरुआत कहां से करूं?
यह प्रश्न नये साधक के मन में आना स्वाभाविक ही है। ऐसा इसलिये है क्योंकि विभिन्न माध्यमों जैसे पुस्तकों, नेट, प्रवचनों आदि में इतनी सूचना है, की उसमें तत्व को ढूंढना ऐसा है जैसे भूसे के ढेर में सुईं को ढूंढना।
तो उपाय क्या है? कैसे मैं सत्य को असत्य से अलग करके देख सकता हूँ? कैसे दूध का दूध और पानी का पानी किया जाये? बल्कि यह कहना उचित है कि कैसे पानी में से दूध को अलग किया जाये?
यह आसान नहीं है, पर यह कौन कहता है कि अध्यात्म आसान है। लेकिन मुझे अपने अनुभव में और कोई विकल्प भी नहीं मिला है अभी तक अध्यात्म का। यहां तो वही आता है जो संसार में दुख ही दुख देखता है या जो सुख में भी दुख और दुख में भी सुख का दर्शन कर लेता है।
हां, यह सही है कि अध्यात्म शुरू में थोड़ा मुश्किल जरूर लगेगा, पर यदि थोड़ा संयम और धैर्य है तो आनंद अध्यात्म में ही है, आनंद मेरे अंदर ही है, बहार नहीं। और एक बार अपने अंदर आनंद का अनुभव कर लिया तो संसार में से आनंद आ रहा है यह भ्रम पैदा नहीं होगा।
तो प्रश्न यह है कि अध्यात्म की शुरुआत कहां से करूं?
उत्तर बहुत आसान है, जहां हो वहीं से। वैसे भी जहां आप नहीं हो वहां से शुरुआत करना असम्भव है 🙂🙂।
अध्यात्म में रुचि कई कारणों से हो सकती है जैसे -
1) सजगता कि जीवन में बहुत कुछ होने पर, तृप्ति क्यों नहीं है, दुख क्यों हैं।
2) जिज्ञासा का होना।
तो जहां कारण है वहीं उसका निवारण भी है। जैसे यह बारीकी से जांचना कि दुख का क्या कारण है? क्या कोई ऐसा दिखता है जो दुखी ना हो, या जो दुख में भी विचलित नहीं दिखता है और सुख में बहुत उत्तेजित नहीं होता है, जो संयम में है।
इन प्रश्नों के उत्तर हमें एक ही तरफ इशारा करते हैं, ऐसे व्यक्ति वही हैं जो अध्यात्म मार्ग पर हैं और जिन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान है। जो अपने स्वरूप में स्थिर है वह दुखी नहीं हो सकता है, पीड़ा हो सकती है, पर दुख नहीं।
इस प्रकार अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। लक्ष्य सांसारिक न हो, वो तो हो चुका है, उसमे तो कुछ नहीं मिला। लक्ष्य संसार के ऊपर हो, परम सत्य जानने का लक्ष्य या फिर दुखों से मुक्ति पाने का लक्ष्य।
इस लक्ष्य तक पहुंचने के कई मार्ग है। लेकिन एक नए व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आता, ये क्या मार्ग हैं, कौन सा पकडूं? उसको मार्गदर्शक की ज़रूरत महसूस होगी, जो ये सब अच्छे से जानता हो।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसा कौन है, उसे कैसे पहचानें कि वह व्यक्ति विश्वास योग्य है और कहीं कोई दिखावा तो नहीं कर रहा है।
यहां गुरु की आवश्यकता पड़ती है। हमें छोटी से छोटी चीज के लिए गुरु चाहिये, जैसे गाड़ी चलाना सीखना। किताबों से पढ़कर तैरना नहीं सीख सकते हैं, डुबकी तो लगानी पड़ेगी।
तो जो भी समझदार व्यक्ति हैं, जिनमें उपर दिये गुण दिखते हैं, जो सबसे पास है, उनके पास जायें और अपने सवाल पूछें। या तो वहां उत्तर मिल जायेंगे या फिर वो आपके दिशा दिखा देंगे कि कहां आपको आपके प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं। ऐसा शायद कई बार करना पड़े। यही तो खोज है। थोड़ा खोजने से सही मार्ग मिल ही जायेगा।
आपकी उलझन का हल आपके मन में एक दिन उभरेगा, वहीं अंतर्मन से दिखाई गई दिशा का अनुसरण करें।
सफलता दूर नहीं है, प्रकृति निष्ठुर नहीं है, कृपा की कमी नहीं है, मैं खुद ही अपने उपर कृपा तो करूं। पैसे कमाने के लिए तो बहुत प्रयत्न करता हूँ, पर अपने अंदर क्या चल रहा है उसके प्रती भी तो सजग रहूँ।
आशा है यह छोटा सा प्रयास आपके कुछ काम आयेगा। कुछ प्रश्न हों तो आप जरूर पूछें या कुछ सुझाव हैं तो साझा करें।
धन्यवाद और प्रणाम।
आपके जैसा एक साधक।
अश्विन
आशुजी आपने एक साधक की मनोस्तिथि का उल्लेख बहुत स्पष्ट रूप से किया है। गुरु के मार्गदर्शकसे और कृपा से हर साधक की सदना निश्चित रूप से पूर्ण होती है। 🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंजी, सही है।
मेरे विचार से, कृपा भी तीन तरह की हो सकती है - अस्तित्व की, गुरु की और अपने उपर अपनी कृपा। अपने उपर अपनी कृपा तब है जब हम एक कदम बढ़ाते हैं अध्यात्म मार्ग पर। और हमें यह अनुभव होता है कि सृष्टि दस कदम बढ़ाती है हमें अपने आगोश में लेने के लिए।
वैसे यह थोड़ा काव्यात्मक हो गया है 🙂🙂।
🙏🙏
आशु जी बहोत बहोत ध्यनवाद
जवाब देंहटाएंआभार।
हटाएं🙏🙏
आशु जी आपको शुभकामनाएं । सेवा सत्संग साधना । 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद।
हटाएं🙏🙏