क्या मिला नहीं जाना,
पर सब कुछ छूटता चला गया।
क्या तुम उस प्रेम को देख सकते हो जो हर क्षण तुम्हारे अंदर पैदा होता है, जब तुम स्वीकार भाव में होते हो, पूर्ण स्वीकार, पूर्ण समर्पण भाव। तब तुम्हें चिंता नहीं की अगले क्षण क्या होगा, तब तुम्हारा चुनाव गिर जाता है ताश के पत्ते से बने हुए महल की तरह। उस निश्चिंतता में तुम्हें नहीं परवाह आगे क्या होगा या अब तक जीवन में क्या हुआ। क्या ये स्वीकार भाव उतरा है जीवन में?
केवल देखना मात्र है, जैसा है उसे वैसा ही केवल देखा जा रहा है। उसको बदलना नहीं है, उसे पाना नहीं है, कोई पूर्वाग्रह नहीं है, कोई नाम नहीं देना है, कोई ज्ञान नहीं प्राप्त करना है।