गुरुवार, 25 जनवरी 2024

किसी के साथ चलते चलते।


किसी के साथ चलते चलते,
क्या मिला नहीं जाना,
पर सब कुछ छूटता चला गया।


जो छूटा उसका कोई गम नहीं,
कुछ मिलेगा उसकी कोई चाह नहीं,
छूटना मिलना दोनों ही बिखर गए।

ना कोई गुरु, ना ही मिला कहीं कोई शिष्य,
ना कहीं कोई मार्ग, ना कोई यात्री,
ना कुछ नया सीखा,
जो सीखा था वो भी भुला दिया।

खुद को ही करता नमन,
खुद को ही हुआ अर्पण,
वो खुद जो कभी मिला ही नहीं।

इस कीमिया को प्रणाम,
शत शत नमन,
जिसने मैं को ही मिटा दिया,
और सुख दुख को भी बहा दिया।

क्या है जो कुछ दूं,
क्या मैं करूं अर्पण,
मैं ही नहीं रहा,
तो क्या अर्पण या क्या हो समर्पण।

ढूंढा जो शीश चढ़ाने को,
उसका पता ही नहीं मिला,
बेबफा जाने कहां छुप गया।

साथ चलना भी नहीं हुआ,
जो चला था वही नहीं रहा,
तो चलना ही छुट गया,
नहीं चलते हुए भी साथ वही रहा।

ना संदेह की कोई जगह,
ना श्रद्धा रही विद्यमान,
ना कहीं बेहोशी का आलम,
तो होश भी छूट गया।

नहीं समझा क्या है झूठ,
नाही सच से कोई उम्मीद,
मेरा होना तो झूठ ही था,
मेरा ना होना भी ना मिला।

वो कोई समझा गया,
जो समझा ना जा सके,
समझ नासमझ के परे,
एक निराधार लम्हा जी उठा।

ना कोई शब्द,
ना ही संगीत,
ना कोई धुन,
मौन में गूंजा एक गीत।

ना कुछ देखा,
ना दिखना ही हुआ,
देखने वाला खुद ही,
दृश्य में समा गया।

अनहद की गूंज,
प्रेम डोरी से बंधा,
कोई साथ चलते चलते,
मैं का भ्रम मिटा गया।

-- अश्विन

🙏🙏🙏

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