मैं चित्त में उठने-गिरने वाली अनेक वृत्तियों का दृष्टा हूँ। चित्त की विभिन्न अवस्थायें आती जाती रहती हैं, मैं इन अवस्थाओं के साथ नहीं बदलता। चित्त का एक वस्तु की तरह अध्यन करने से उसके प्रति आसक्ति कम हो जाती है, और एक दूरी बन जाती है मुझमें और चित्त की अनेक वृत्तियों में। 'मुझमें' यानि चैतन्य स्वरूप में और चित्त की अनेक वृत्तियों में।