मैं चित्त में उठने-गिरने वाली अनेक वृत्तियों का दृष्टा हूँ। चित्त की विभिन्न अवस्थायें आती जाती रहती हैं, मैं इन अवस्थाओं के साथ नहीं बदलता। चित्त का एक वस्तु की तरह अध्यन करने से उसके प्रति आसक्ति कम हो जाती है, और एक दूरी बन जाती है मुझमें और चित्त की अनेक वृत्तियों में। 'मुझमें' यानि चैतन्य स्वरूप में और चित्त की अनेक वृत्तियों में।
चित्त की वृत्तियां निरंतर परिवर्तित होती रहती हैं, और एक तरह की मिलती हुई सी प्रक्रियाओं को हम एक अवस्था कह देते हैं। इस तरह चित्त में अनेक अवस्थायें सम्भव हैं। यहां चित्त की तीन तरह की अवस्थाएं जागृत, स्वप्न और निद्रा (सुषुप्ति या स्वप्न रहित नींद) पर हम दृष्टि डालते हैं।
अधिकतर हम जागृत अवस्था को अधिक महत्व देते हैं और बाकी अवस्थाओं को ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझते हैं। इसका मुख्य कारण है कि जागृत अवस्था वस्तुनिष्ठ है, यहां बदलाव की गति धीरे है और यह उत्तरजीविता के लिए अधिक उपयोगी प्रतीत होती है।
जैसा कि हमने "जागृत और स्वप्न अवस्था की तुलना" नामक लेख में देखा कि जागृत और स्वप्न में कोई भी मूलभूत भेद नहीं है। इसी तरह से निद्रा भी चित्त की एक अवस्था ही है, जहां केवल आनंद होता है और अन्य वृत्तियां उस समय अनुभव में नहीं आ रही होती हैं।
यह विचार करें कि इस समय मैं जागृत अवस्था में हूँ, तो स्वप्न और निद्रा इस समय कहां हैं? क्या इन अवस्थाओं में कोई निश्चित सीमा होना आवश्यक है? कहीं यह अज्ञान तो नहीं कि मैं इनको भिन्न भिन्न मान रहा हूँ? क्या यह सभी केवल एक वृत्ति मात्र नहीं हैं, और मैं इनका अनुभव कर रहा हूँ, एक साक्षी की तरह? इन अवस्थाओं में क्या कोई भी मूलभूत भेद है और इनमें समानतायें क्या हैं?
इस समय जागृत अवस्था में, यदि मैं अपना ध्यान जगत, इन्द्रियों, संवेदना आदि से हटा दूँ और एक कल्पना में लिप्त हो जाऊं, तो यह एक तरह का दिवास्वप्न है। यह स्वप्न अवस्था से मिलता जुलता है। और अब यदि मैं विचारों, कल्पनाओं, भूतकाल आदि से भी ध्यान हटा दूँ, और केवल अपने स्वरूप के नित्य आनंद स्वरूप में स्थित हूँ, तो यह अवस्था निद्रा समान ही है।
यदि मुझे आत्मज्ञान हो गया है, रुचि है, और प्रयोग करने से यह सम्भव है की स्वप्न में भी चेतना जागृत हो जाये। ऐसे में जागृत अवस्था की स्मृति स्वप्न के अनुभवों में मिल जाती है। और योग साधना से निद्रा में भी चेतना बनाये रखना सम्भव है।
फिर क्या यह मानना सही है कि केवल जागृत अवस्था सत्य है, और स्वप्न, निद्रा आती जाती रहती हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि निद्रा अधिक स्थायी है, आधार है जिसपर स्वप्न, जागृत आती जाती रहती हैं?
क्या यह कहना उचित है कि मैं इनमें से एक में अधिक मात्रा में हूँ? या मैं इनमें से एक में ही हूँ और अन्य में नहीं हूँ? यह निर्भर करता है कि मैनें 'मैं' को क्या मान लिया है। यदि मैं को कोई अनुभव मान लिया है जैसे शरीर, मन, अहंकार, बुद्धि आदि, तो अनेक भ्रम रहेंगे। पर यदि मैं की स्थिति दृष्टा पर है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मैं चित्त की कोई वृत्ति या अवस्था नहीं हूँ। चित्त या चित्त की कोई भी वृत्ति या अवस्था केवल एक अनुभव मात्र है, जिसका मैं साक्षी मात्र हूँ।
मूल ज्ञान, उपनिषद शास्त्रों में बयान किया हुआ सत्य, गुरु कृपा, अपरोक्ष अनुभव और अनुमान से यह समझना मुश्किल नहीं है कि:
- मैं सभी अवस्थाओं में होते हुए भी इनसे परे हूँ, इनसे निर्लिप्त हूँ।
- सभी अवस्थाएं मुझमें हैं, पर मैं इनमें से किसी में भी नहीं हूँ।
- मुझसे अन्य कुछ नहीं हैं, मुझे सबमें अपने ही स्वरूप के दर्शन हो रहे हैं। दृष्टि ही सृष्टि है।
- सभी कुछ जो अनुभव में है वह चित्त वृत्ति है, स्मृति मात्र है, माया है, प्रतिति है, सत्य नहीं है, केवल मैं ही सत्य हूँ। मैं ही एकमात्र सबका दृष्टा या साक्षी हूँ।
- कोई भी अवस्था है ही नहीं; होती तो बदलती नहीं, बदल गई तो कभी हुई ही नहीं। ना दृष्टा है ना दृश्य है, केवल दृष्टि मात्र है, अस्तित्व है, शून्यता है।
इनमें से जो उत्तर अधिक तार्किक लगे, या कुछ और जो आपका अपरोक्ष अनुभव हो, उसे सही मान लें, और उसपर मनन करें, उसे सिद्ध कर लें, और संशय रहने पर अपने गुरु से परामर्श करें।
आत्मबोध, प्रयोगों के द्वारा प्राप्त अपरोक्ष अनुभव और तर्क से हम अपने अपरिवर्तनीय निरंजन चैतन्य साक्षी स्वरूप को पहचान सकते हैं, और इसी क्षण जीवनमुक्त हैं यह देख सकते हैं।
प्रणाम।
बहुत ही उपयोगी बातें कही है आपने ।🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद... 🙏🙏🙏
हटाएंउत्तम
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ कर बुहोत आनंद आया,धन्यवाद 🙏
जवाब देंहटाएंखुशी हुई कि आप इससे जुड़ पाये, सत्य एक ही है, और सत्य अभी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। यदि बदल गया तो वो सत्य नहीं है।
हटाएं🙏🙏
बहुत स्पष्ट, सरल और सटीक लेख 🙏
जवाब देंहटाएंनिवेदन है कि यह बौद्धिक रूप से तर्कों द्वारा स्पष्ट होता है कि में ही तीनो अवस्थाओं में रहता हूं जागृत को स्वप्न का स्वप्न को जागृत का सुसुप्ति को जागृत, स्वप्न का ज्ञान नहीं रहता, तीनो को एक दूसरे का कोई ज्ञान नहीं है, परंतु स्वयं को तीनो का ज्ञान होता है, तो सिद्ध होता है, में तीनो अवस्थाओं में रहता हूं यह तीनो अवस्थाएं स्वयं से पृथक है स्पष्ट है,
जब भी नीद पूरी होती है तो यह ध्यान होता है कि जो में जागृत में था वही में अभी स्वप्न और सुसुप्ति में भी था क्योंकि सोने का समय और जागने का समय मेरे ज्ञान में है और अपने अभाव का भी अनुभव नहीं होता।
तीनो अवस्थाओं के भाव और अभाव का ज्ञान होता है
प्रश्न : इस स्थति में मुझे क्या करना चाहिए, अपरोक्ष करने या सिद्ध करने की कोई प्रक्रिया या विधि है,
कृपया बतलाए, क्योंकि जैसा में पहले था वैसा अभी भी हूं कोई विशेष अंतर जान नही पड़ता, ज्ञान बड़ गया है
इस पर मुझे ध्यान देना पड़ता है ध्यान देने पर स्पष्ट हो जाता है।
कृपया यहां से आगे बढ़ने में सहायता करे।🙏
बहुत स्पष्ट, सरल और सटीक लेख 🙏
जवाब देंहटाएंनिवेदन है कि यह बौद्धिक रूप से तर्कों द्वारा स्पष्ट होता है कि में ही तीनो अवस्थाओं में रहता हूं जागृत को स्वप्न का स्वप्न को जागृत का सुसुप्ति को जागृत, स्वप्न का ज्ञान नहीं रहता, तीनो को एक दूसरे का कोई ज्ञान नहीं है, परंतु स्वयं को तीनो का ज्ञान होता है, तो सिद्ध होता है, में तीनो अवस्थाओं में रहता हूं यह तीनो अवस्थाएं स्वयं से पृथक है स्पष्ट है,
जब भी नीद पूरी होती है तो यह ध्यान होता है कि जो में जागृत में था वही में अभी स्वप्न और सुसुप्ति में भी था क्योंकि सोने का समय और जागने का समय मेरे ज्ञान में है और अपने अभाव का भी अनुभव नहीं होता।
तीनो अवस्थाओं के भाव और अभाव का ज्ञान होता है
प्रश्न : इस स्थति में मुझे क्या करना चाहिए, अपरोक्ष करने या सिद्ध करने की कोई प्रक्रिया या विधि है,
कृपया बतलाए, क्योंकि जैसा में पहले था वैसा अभी भी हूं कोई विशेष अंतर जान नही पड़ता, ज्ञान बड़ गया है
इस पर मुझे ध्यान देना पड़ता है ध्यान देने पर स्पष्ट हो जाता है।
कृपया यहां से आगे बढ़ने में सहायता करे।🙏
आपकी समझ बिलकुल सही है। ज्ञान से ही चेतना बढ़ती है,और कोई साधना नहीं है ज्ञान मार्ग पर। चेतना बढ़ाने के लिए कोई साधना करना अनिवार्य नहीं है।
जवाब देंहटाएंअपरोक्ष करने की क्या विधि होगी यदि सत्य सर्वदा अपरोक्ष ही है, यदि अपरोक्ष नहीं है तो सत्य भी नहीं है।
आप अपने में किस तरह का अन्तर चाहते हैं? आपने ही सिद्ध किया है कि आप अपरिवर्तनीय हैं, तभी सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं। जो पहले से ही मुक्त है वो और अधिक मुक्त नहीं हो सकता है।
जहां आप ध्यान देते हैं तो उसी ध्यान में यह समावेश कर लें कि क्या अभी चेतना है। चेतना में ध्यान होता है, पर यह आवश्यक नहीं है कि हमेशा ध्यान में चेतना बनी रहे।
चेतना को बनाये रखने के लिए कोई नई साधना आवश्यक नहीं है। मेरा विचार है कि आप को समझ सही है, केवल साक्षी भाव में रहना प्रारम्भ कर दें, या यह और समझ लें कि आपके पास कोई विकल्प ही नहीं है, आप सर्वदा साक्षी ही हैं।
सारा प्रयास त्याग कर, यदि यह दिख रहा है कि मेरी कुछ प्रगति नहीं हो रही है तो वो भी सही है, उसको भी साक्षी भाव से देखें।
अंततः बुद्धि की सीमा को पहचान कर समर्पण भाव में आ जायें। गुरु कृपा तो है ही, अपने आप पर स्वयं की ही कृपा दृष्टि रखें।
🙏🙏🙏
उत्तर देने के लिए बहुत बहुत आभार 🙏
जवाब देंहटाएंमेरे प्रयास सदैव कुछ नवीन ज्ञान प्राप्त हो, इस और रहा है,
पूर्व में भी बहुत कुछ सत्य प्रतीत होता था, परंतु समय के साथ वह बदल गया, इस कारण एक शंका रहती है
यह सब समझ के बाद से विषयो, संबंधों के प्रति एक उपराती, उदासीनता रहने लगी है इस कारण भी भय लगता है कहीं मेरा पतन न हो जाए,
मन में सब कुछ त्याग करने का भाव अधिक आता है , किंतु यह भी समझ आता है कि यह भी वृत्ति है, अभी यह है कल कुछ लगेगा,
बस में सब का विक्टिम हूं ऐसा लगता है इस भौतिक जीवन में सफल नहीं हूं
कभी परिवार के प्रति कर्तव्य है उधर भी ध्यान जाता है कही कुछ गलत तो नहीं कर रहा।
क्या कभी एक निष्कर्ष पर रहूंगा या ऐसी ही रहेगा।
जो बदल गया वो सत्य नहीं था। जो आप अभी देख रहे हैं उसे अपने अपरोक्ष अनुभव और तर्क पर परखकर, उसे हर दृष्टिकोण से देख लें, उसे जांच लेने के बाद ही उसे सत्य मानें, तो वो नहीं बदलेगा।
जवाब देंहटाएंआपका पतन नहीं हो सकता है, आप सर्वदा मुक्त हो।
अपनी जिम्मेदारियों, परिवार और आध्यात्म में आप संतुलन बना सकते हैं, उसके लिए समझदारी से उचित निर्णय लें।
🙏🙏🙏
वैसे भी आप देखेंगे कि आत्मज्ञान होने से माया खत्म नहीं हो जाती है। मुक्त तो आप पहले से ही हैं, जो बंधन में है वो तो शरीर या मन है, उसको चलने दो जैसे चल रहा है, ये प्राकृतिक है।
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