क्या तुम उस प्रेम को देख सकते हो जो हर क्षण तुम्हारे अंदर पैदा होता है, जब तुम स्वीकार भाव में होते हो, पूर्ण स्वीकार, पूर्ण समर्पण भाव। तब तुम्हें चिंता नहीं की अगले क्षण क्या होगा, तब तुम्हारा चुनाव गिर जाता है ताश के पत्ते से बने हुए महल की तरह। उस निश्चिंतता में तुम्हें नहीं परवाह आगे क्या होगा या अब तक जीवन में क्या हुआ। क्या ये स्वीकार भाव उतरा है जीवन में?
इस स्वीकार भाव से मौन स्फुरित होगा, एक फव्वारे की तरह, सहज ही, उसमें कोई शर्त नहीं, उसमें कोई अपेक्षा नहीं, उसमें कोई जिद नहीं की ऐसा ही हो। उसमें कोई भय नहीं कोई दबाव नहीं की यदि ऐसा नहीं हुआ तो पता नहीं क्या हो जायेगा। यदि कोई दबाब है तो अभी अपने को जाना नहीं, अभी अंतर्गुरु सोए हुए हैं, अभी सदगुरु का आविर्भाव बाकी है, अभी थोड़ा और इंतजार है।
ये इंतजार भी एक नया दबाव मत बनने दो, अभी इसी पल हर व्यक्ति में ये संभावना है कि वो इसी पल उससे जुड़ जाए जिससे कभी जुदा नहीं हुआ, ना हो सकता है। सभी दबाव सभी चुनाव सभी भय एक भ्रम थे, उस धरातल पर जो तुम हो, जो अच्छे बुरे का साक्षी है, निर्लिप्त, निर्भय, निराशय, निराकार, निरुद्ध, निरामय, निर्मल, निर्मोह, निर्सपृह।
अभी इसी पल डूब जाओ अपने अंतर्मन के स्रोत में, एक बार चख लो उस स्वाद को कि भूल ना पाओ, भूलना चाहो तो भी भुला ना पाओ। बार बार उसमें डुबकी लगाकर तरो ताजा हो जाओ, जब जी चाहे। इस शुद्ध निर्मल प्रज्ञा में तुम नहीं रहोगे लेकिन होना रह जायेगा, अभिन्न, अविभाजित, सर्व व्यापक। वो तुम ही हो, उसे बाहर मत ढूंढो, उसे किसी से मांगों मत, वह तुम्हारा स्वरूप ही है, उसे पहचानना मात्र है, फिर पहचानने वाला नहीं रहेगा, फिर द्वैत होते हुए भी केवल अद्वैत ही प्रकट रहेगा।
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