अध्यात्म में क्या मिलेगा? आखिर क्यों करूं में अपने स्वरूप की खोज?
जब हम अध्यात्म में रुचि लेते हैं तो सबसे पहले यही सोचते हैं, यहां मुझे क्या मिलेगा? यह सवाल इसलिये उठता है, क्योंकि अभी तक संसार में यही सीखा है, कि प्रयत्न मैं तभी करूंगा जब बदले में कुछ मिले। और यह धारणा इतनी गहरी बैठ गई है कि साधना भी इसलिये करते हैं कि मुझे कुछ मिले, फिर चाहे वह सांसारिक हो या मानसिक या अध्यात्मिक। हम अध्यात्म में भी प्रतियोगिता करने लगते हैं!!
इसमें बड़ी भूल है। अध्यात्म में कुछ मिलेगा नहीं, बल्कि जो है वह भी छूट जायेगा, जैसे झूठी मान्यतायें, सुख से आसक्ति, दुख से दूर भागने की प्रवृत्ति, आवेग या अचेतना में किये गये कर्म, कर्ता भाव आदि।
जो भी अनावश्यक है त्याग दिया जायेगा। जो तत्व है, रह जायेगा। ये कोई क्यों चाहेगा? क्योंकि जो जमा है वो मैल है, बोझ है। आनंद इनसे मुक्त होने में है। इनका छूट जाना ही शांति है। अध्यात्म में खोना ही पाना है। इसलिए यहाँ जो आता है, फिर जा नहीं पाता। यहाँ हम पाने नहीं लौटाने आते हैं।
तो अध्यात्म में मिलेगा क्या? कुछ नहीं। बस शून्यता या वही जो मेरा स्वरूप है। लेकिन, जो मेरा स्वरूप है वो मिल कैसे सकता है, वह तो पहले से ही मैं हूँ। तो इसीलिए कुछ मिलना संभव नहीं, मेरे स्वरुप को जिस मैल ने ढक लिया है, उसको बस हटाना है। मुझे जो सिमित करता है, उसका त्याग करना है।
अब यह भी जानना आवश्यक है कि मेरा स्वरूप क्या है? यदि यह कोई उत्तर दे रहा है तो वह नहीं जानता कि वह कौन है। यहां सभी शास्त्र मौन हो जाते हैं, उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। बस कह दिया जाता है, नेती नेती।
यह कैसा मार्ग है, जहां मूल प्रश्न का ही उत्तर नहीं है? पर ऐसा ही है।
पर यदि उत्तर चाहिये तो बस यही कहा जा सकता है कि जो मैं हूँ यह जाना नहीं जा सकता है, पर हुआ जा सकता है। और जो मैं हूँ, वही होने के लिए क्या करूं? एक पति, पुत्र या पिता को, आदमी होने के लिए क्या करना पड़ेगा?
या ऐसे कहें, एक घोड़े को जो स्वयं को गधा समझता है, फिर से घोड़ा बनने के लिए क्या करना होगा। कुछ नहीं, क्योंकि यह भी असम्भव है। बस उसे अपने आप को गधा होने का भ्रम छोड़ना होगा।
कुछ करके मैं वो नहीं बन सकता हूँ जो मैं पहले से ही हूँ। तो समस्या क्या है?
समस्या यह है कि सभी समस्यायें काल्पनिक हैं, मिथ्या हैं। शायद यह कुछ लोगों को समझ नहीं आये, पर इससे सत्य नहीं बदल जाता है।
यह समझने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। यह किताबों में नहीं है, यह पढ़कर नहीं मिल सकता है। यह सद्गुरु की कृपा से ही मिलता है। इसलिये अध्यात्म मार्ग पर गुरु का अत्यधिक महत्व है।
या तो मैं कुछ नहीं हूँ, या मैं ही सब कुछ हूँ। और दोनों ही पुर्ण सत्य हैं।
इसपर विचार करें।
प्रणाम।
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